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जैन संस्कृत महाकाव्यों में भारतीय समाज
प्रयोग में लाया जाता था।' (घ) उपकरणात्मक आयुध ५६. तूरणीर-२ बाण रखने का उपकरण । ६०. शान-3 तीक्ष्णमुख वाले प्रायुधों को पैना करने का उपकरण । ६१. कटाह -तेल गर्म करने वाला कड़ाहा । दुर्गयुद्ध के अवसर पर इसकी
विशेष आवश्यकता होती थी। २. सुरक्षात्मक आयुध
सुरक्षात्मक प्रायुधों में (६२) कवच' तथा (६३) खेटक (ढाल) प्रमुख आयुध थे । (६५) शिरस्त्र नामक आयुध 'शिर' की सुरक्षा हेतु प्रयोग में लाया जाता था। (६५) संनाह सामान्यतया कवच के लिए प्रयुक्त होता है । वरांगचरित में हाथियों के कवचों का भी उल्लेख पाया है । इन सुरक्षात्मक आयुधों के अतिरिक्त (६६) 'अर्गला' भी एक सुरक्षात्मक उपकरण रहा था जो शत्रु सेना के दुर्ग आदि प्रवेश-निरोध हेतु प्रयुक्त होता था। पूर्व निर्दिष्ट परिघ'१० ऐसा ही प्रवेश-निरोधक आयुध था जिसे मुख्य द्वारों पर स्थापित किया जाता था। कुछ 'दिव्यास्त्र' भी सुरक्षात्मक दृष्टि से प्रयुक्त होते थे । ३. दिव्यास्त्र
रामायण एवं महाभारत में दिव्यास्त्रों के प्रयोग होने का उल्लेख पाया है । जैन संस्कृत महाकाव्यों के पौराणिक युद्ध वर्णनों के प्रसङ्गों में निम्नलिखित दिव्यास्त्रों का उल्लेख मिलता है६७. तामसास्त्र'-अन्धकार फैलाने वाला अस्त्र । इसका अपर नाम
'तिमिरास्त्र'१२ भी है।
१. विशेष द्रष्टव्य, प्रस्तुत ग्रन्थ, पृ० १८४ २. द्विस०, ६.५७ ३. वही, १६.७६ ४. हम्मीर० ११७२ ५. जयन्त०, १४.६८ ६. द्विस०, १६.३७; चन्द्र०, १५.११ ७. वराङ्ग०, १४.६, १८ ८. चन्द्र०, १५.७,८; वराङ्ग०, १८.११ ६. वराङ्ग०, १७.७७ १०. द्रष्टव्य, प्रस्तुत ग्रन्थ, पृ० १७७ ११. चन्द्र०, ६.१०३, (टीका) पृ० १६७; प्रद्युम्न०, १०.४१ १२. जयन्त०, १४.६४