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पर केन्द्रित था। प्राचीन काल में धर्म को धारणा अत्यन्त व्यापक थी जिसमें साम्प्रदायिकता का उतना आग्रह नहीं था जितना कि व्यक्ति और समाज के व्यवहारों को व्यवस्थापित करने की सद्भावना किन्तु यह भी ऐतिहासिक सत्य है कि जब भी धर्म साम्प्रदायिक सङ्कीर्णताओं से जुड़ा है उसने उन तमाम मानवीय मूल्यों को ताक पर रख दिया जो धर्म को शाश्वतता से अनुप्रेरित हैं तथा सामाजिक सौहार्द एवं बन्धुत्व-भावना का प्रसार करते हैं ।
अतीत के मानव व्यवहारों का इतिहास चाहे किसी भी देश का रहा हो, वर्तमान को इस अोर सावधान करता आया है कि सिद्धान्ततः धर्म, राजनीति और आर्थिक मूल्य सामाजिक नियंत्रण के प्रभावशाली उपादान हैं परन्तु द्वेष तथा प्रभुता की भावना से धर्म को जब भी साम्प्रदायिक मोड़ दिया गया है तो राजनैतिक मूल्यहीनता और आर्थिक विषमता के कारण सामाजिक प्रगति अवरुद्ध हुई है ऐसे में देशकाल की परिस्थितियों के अनुसार कभी साम्प्रदायिकता के नेतृत्व में राजचेतना
और आर्थिक विकास कंठित हो जाता है तो कभी भौतिक उन्नति की गजनिमीलन प्रवृत्ति से धर्म और राजनीति के क्षेत्र में एक गहरी शून्यता छा जाती है । इसी प्रकार जनतांत्रिक मूल्यों को विरोधी राजचेतना जब समाज पर हावी होती है तो साम्प्रदायिक तनावों और आर्थिक असन्तोषों का समाजशास्त्र फूटने लगता है :
___ सच तो यह है कि 'सत्त्व', 'रजस्' तथा 'तमस्', की साम्यावस्था जैसे सांख्य दर्शन की 'प्रकृति' के लिए अत्यावश्यक होती है जिससे कि 'पुरुष' का कल्याण हो सके ठीक उसी प्रकार धर्म, राजनीति तथा अर्थव्यवस्था का समुचित नियोजन सामाजिक व्यवस्था के लिए भी एक अनिवार्य आवश्यकता है ताकि मनुष्य मात्र का हित-सम्पादन हो सके । 'प्रकृति' की प्रधानता और 'पुरुष' की उदासीनता इस समाजशास्त्रीय प्रवृति की भी द्योतक है कि समष्टि साधना का पुण्यलाभ सदा ब्यक्ति को ही मिलता है। प्राचीन साहित्य में समग्र जनसमह तथा व्यक्ति के वास्तविक स्वभाव दोनों के लिए 'प्रकृति' शब्द का व्यवहार हुआ है जिसकी अर्थवत्ता का औचित्य भी तभी सिद्ध हो सकता है जब व्यष्टि और समष्टि के मध्य एक अद्वैत सम्बन्ध बना रहे तथा व्यक्ति और समूह एक दूसरे के प्रति समर्पित भाव होकर ही व्यवहत हों । किन्तु व्यक्तिवादी भावनो जब भी समाज पर हावी हुई है सामाजिक विघटनों का मार्ग प्रशस्त हुआ है। धर्म को बलपूर्वक सम्प्रदायों में विभाजित होना पड़ा तथा 'नको ऋषिर्यस्य वच: प्रमाणम्' की वेदना को भी सहना पड़ा। राजनीति 'वसुधा-उपभोग' की अराजकता का निशाना बनी
और अर्थव्यवस्था का नियोजन करने वाले ही उसके सबसे बड़े भक्षक बन बैठे। सामाजिक आदर्शों तथा व्यावहारिक परिस्थितियों में सदा संघर्ष होता पाया है। सामाजिक चिन्तन और समाज व्यवस्था में भी कटु संवाद की युग चेतना उभरती माई है। इतिहासकारों के लिए अब भी यह खोज का ही विषय बना हुआ है कि