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________________ जैन संस्कृत महाकाव्यों में भारतीय समाज से यशोधरचरित में यशोधर की रानी का महावत से अनैतिक सम्बन्ध होना' तथा वराङ्गचरित महाकाव्य में राजकुमार वराङ्ग के रूप लावण्य पर आसक्त होकर राजकुमारी मनोरमा द्वारा विवाह करने की उत्कट इच्छा प्रकट करना आदि कुछ इसी प्रकार के उदाहरण हैं। वराङ्गचरित के इस दूसरे दृष्टान्त के सम्बन्ध में यह उल्लेखनीय है कि राजकुमार वराङ्ग (कश्चिद्भट) ने मनोरमा के उक्त विवाह प्रस्ताव को 'स्वदारसंतोषवत' के उल्लङ्घन होने के भय से अस्वीकार कर दिया था। मनोरमा की सखी ने वराङ्ग के इस प्राशय को तर्कहीन बताते हुए कहा कि व्रतों के द्वारा स्वर्ग प्राप्त होता है तथा स्वर्ग में सार वस्तु कोई है तो वह वहाँ की अप्सराएं होती हैं। इसीलिए इसी जन्म में प्रत्यक्ष रूप से प्राप्त अप्सराओं के तुल्य रूपसौन्दर्य वाली मनोरमा को त्याग कर व्रताचरण द्वारा स्वर्गस्थ देव कन्याओं की कामना करना सर्वथा अनुचित है।४ वराङ्गचरित के इस दृष्टान्त से सहज में ही अनुमान लगाया जा सकता है कि स्त्री-भोग विलास सम्बन्धी मूल्य समाज में प्रभावशाली मूल्य बन चुके थे तथा कभी-कभी विषय-वासनाओं के वशीभूत होकर नैतिकधर्माचरण को भी हेय माना जाने लगा था। समाज में ऐसी स्त्रियां थीं जो अभीष्टप्रेमी को माया प्रयोगों तथा वशीकरण मंत्रों द्वारा वश में करना भी जानती थीं। इसीलिए जैन धार्मिक उपदेशों में स्त्री-पुरुषों के इन अवैध सम्बन्धों की निन्दा की गई है। पार्श्वनाथचरित में कमठ द्वारा अपने छोटे भाई की पत्नी वसुन्धरा के १. वराङ्ग०, १०.४०-५५ २. तु०-स्वदारसंतोषमणुव्रताख्यं साध्वीश्वरौ मह्यमुपादिदेश । -वही, १६.६१ ३. तु०-व्रते दिवं यान्ति मनुष्यवर्या दिवश्च सारोऽप्सरसो वराङ्गयः । व्रताभिगम्या यदि देवकन्या इयं हि ताभ्यो वद केन हीनाः । -वही, १९.२४ ४. तु०-प्रत्यक्षभूतं फलमुद्विहाय परोक्षपातं मृगये ह्यापार्थम् । न पण्डितस्त्वं बत बालिशोऽसि संदिग्धवस्तुन्यथ मुख्यमास्ते । -वही, १६.६३ ५. तु०-जानामि विद्यां विविधप्रकारां मायामदृश्यां मदनप्रयोगम् । आवेशनं भूतवशीकृतिं च यदीच्छसि त्वं प्रवदेत्यवोचत् ।। -वही, ५३ ६. वही, ५.२६ तथा ५.५६
SR No.023198
Book TitleJain Sanskrit Mahakavyo Me Bharatiya Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohan Chand
PublisherEastern Book Linkers
Publication Year1989
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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