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जैन संस्कृत महाकाव्यों में भारतीय समाज
पशु-धान्य-हिरण्य (स्वर्ण) प्रादि सम्पत्तियों से सम्पन्न माना है।' राजा की प्रायवृद्धि के प्रमुख साधन ये राष्ट्र भी थे । सामन्त राजाओं द्वारा उपहार आदिके रूप में स्वामी राजाओं की अनेक प्रकार की धन-सम्पत्ति इन्ही राष्ट्रों से प्राप्त होती थी। इस प्रकार द्विसन्धान महाकाव्यकार के अनुसार उपर्युक्त सात स्रोतों से मुख्यतया राज्यकोष में वृद्धि सम्भव थी।
बलपूर्वक कोष-संग्रहण
वराङ्गचरित से यह विदित होता है कि कुछ उद्दण्ड सामन्त राजा स्वकोष वृद्धि के उद्देश्य से निर्बल राजाओं के कोष पर बलपूर्वक अधिकार करने की चेष्टा किया करते थे। कुछ सामन्त राजाओं को युद्ध से बचने के एवज में धन सम्पत्ति देने के लिए भी बाध्य किया जाता था ।3 वराङ्गचरित महाकाव्य में ललितेश्वर को मथुराधिप द्वारा हाथी देने अन्यथा युद्ध करने के लिए इसी प्रकार विवश किया गया था। किन्तु ललितेश्वर सेना, मित्र, कोश आदि की दृष्टि से सक्षम नहीं था ।५ और न ही वह मथुराधिप के द्वारा याचित हाथी को ही देना चाहता था। ऐसी विषम स्थिति में मंत्रिमण्डल के एक मन्त्री द्वारा राजा को धन, भूमि, पुर, रत्न तथा अपने हाथी तक को उपहार में देकर मथुराधिप को सन्तुष्ट करते हुए युद्ध विभीषिका से बचने की सम्मति दी गई थी।७ वराङ्गचरित का प्रस्तुत दृष्टान्त बलपूर्वक कोष-संग्रहण की राजनैतिक परिस्थितियों को स्पष्ट कर देता है। हम्मीर महाकाव्य के अनुसार भी हम्मीर को निर्भय होकर राज्य करने की शर्त के रूप में अलाउद्दीन ने हम्मीर की कन्या के साथ एक लाख स्वर्ण-मुद्राओं, चार गजों, तथा
१. पशु-धान्य-हिरण्य-सम्पदा राजते शोभते इति राष्ट्रम् ।
-(नीति-वाक्यामृत, २०.१), पद-कौमुदी-टीका, पृ० २८ पर उद्धृत २. तु०-शौर्यो द्वतावप्रतिकोशदण्डौ गृहीतसामन्तसमस्तसारौ ।
-वराङ्ग०, १६७ ३. वही, १६.२६ ४. एकस्य हेतोः करिणो यदासौ नेच्छेत्सुखम् । वही, १६.२८ ५. वयं च हीना बलमित्रकोशेढुंगै च सदुर्गगुणैरपेतम् ।
-वही, १६.५० ६. अस्मै न मे दन्तिवरस्य दित्सा परेण साकं न च योद्धकामः ।।
-वही, १६.५१ ७. धनेन देशेन पुरेण साम्ना रत्नेन वा स्वेन गजेन वापि ।
-वही, १६.५०