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________________ ६६ जैन संस्कृत महाकाव्यों में भारतीय समाज चरित के अनुसार राजा प्रायः अपने मन्त्रिमण्डल से परामर्श लेता था। युद्ध विषयक समस्या को लेकर चन्द्रप्रभचरित में भी मंत्रिमण्डल से राजा की मंत्रणा करने के उल्लेख प्राप्त होते हैं ।' राजा पद्मनाभ ने अपने मन्त्रिमण्डल को बुलाकर मन्त्रिमण्डल की उपादेयता को मुक्त कण्ठ से स्वीकार किया है ।२ राजा को राजनैतिक दांव पेचों की शिक्षा मन्त्रिमण्डल के सदस्यों से ही मिल सकती है। राजनीतिशास्त्र के ग्रन्थों में प्रतिपादित सिद्धान्तों का भी मन्त्रिवर्ग के अनुभवों के आधार पर प्रयोग करना ही श्रेष्ठ माना जाता था।४ चन्द्रप्रभ० में मन्त्रिमण्डल की तुलना मां से करते हुए कहा गया है कि जैसे मां अपने बच्चे का पालन-पोषण करती है, उसे कौशल की शिक्षा देती है और प्रमादपूर्ण कार्यों से सावधान रखती है उसी प्रकार मन्त्रिमण्डल भी राजा को कौशलपूर्ण नीतियों की शिक्षा देते हुए अनर्थों से सचेत रखता है।५ पद-पद पर भूल करने वाले मदान्ध राजाओं पर गुरु वर्ग अंकुश के रूप में रहता है तथा पथभ्रष्ट होने से बचाता है । यही कारण है कि पराक्रमी राजाओं तथा बुद्धिमान मन्त्रियों के अनेक वंशों तक सम्बन्ध रहते हैं; तथा इससे राज्य भी सुस्थिर रहता है । मन्त्रिवर्ग भी समस्या के प्रत्येक पक्ष पर सूक्ष्मता से विचार कर राजा को अन्तिम निर्णय देता था । कभी-कभी राजा का पुत्रहीन होना मन्त्रियों के लिए भी चिन्ता का विषय बन जाता था। ऐसे समय में मंत्रिमण्डल मंत्रणा द्वारा राज्य की स्थिति का पर्यालोचन करते हुए युद्ध से बचने का निर्णय भी ले लेते थे। किन्तु कभी-कभी मंत्रियों की चर्चा के पश्चात् राजा के न चाहते हुए भी युद्ध करने का निर्णय हो जाता था। इस प्रकार मन्त्रिवर्ग राजा को ऐसी सम्मति देता था जिससे युद्ध करना भी कभी-कभी लाभप्रद हो सकता था। द्विसन्धान महाकाव्य में भी 'मन्त्रशाला' में १. चन्द्र०, १२.५७-६६ २. वही, १२.५८-६१ ३. तु०-वयमप्यगमाम कौशलं नयमार्ग यदयं भवद्गुण: । चन्द्र०, १२.५८ ४. तु०-नयशास्त्रनिदर्शितेन यः सततं संचरते न वर्त्मना । चन्द्र०, १२.७६ तथा नहि कार्यविपश्चितः पुरो निगदनराजति शास्त्रपण्डितः । चन्द्र०, १२.७० ५. तु-रिवर्धयति स्व कौशलैः कुशलं शास्त्यवति प्रमादतः । जननी जनिकेव तत्फलं कुरुते नः सकलं भवन्मतिः ॥ चन्द्र०, १२.५६ ६. तु०-अपथाद्विनिवर्तयेत को गुरवश्चेन्न भवेयुरङ्कुशा: । चन्द्र०, १२.६१ ७. तु०-नन्दस्य वंशे कालेन नन्दा सप्ताभवन्नृपाः । तेषां च मंत्रिणोऽभूवन्भूयांसः कल्पकान्वयाः ॥ परि०, ८.२ ८. वराङ्ग०, सर्ग-१६, ५०-७०, तथा चन्द्र०, सर्ग०-१२,५७-१०१ ६. हम्मीर०, ४.२१-२३ १०. वराङ्ग०, १६.५० तथा ७५
SR No.023198
Book TitleJain Sanskrit Mahakavyo Me Bharatiya Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohan Chand
PublisherEastern Book Linkers
Publication Year1989
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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