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________________ ८० जैन संस्कृत महाकाव्यों में भारतीय समाज लिए विजिगीषु राजा को उपहार आदि देकर, 'दान' से ही सन्धि कर लेते थे।' 'दान' के समर्थकों का मत था कि राज्य-कोष की कुछ राशि देकर अथवा ग्राम प्रादि दान कर यदि राज्य की प्रभुता बनी रहे तो इसमें कोई हानि नहीं।' दूसरी ओर विपक्ष की यह मान्यता थी कि 'दान' प्रादि से राज्य के कोष में क्षति होती है तथा शत्रु राजा का धन-लोभ सदैव बढ़ता ही जाता है इसलिए 'दान' नीति द्वारा शत्रु का प्रतिकार संभव नहीं । ३. मेव-'भेद' नीति अालोच्य युग की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण नीति है। भेद नीति को राज्य के महामन्त्री मादि महत्त्वपूर्ण अधिकारियों का विशेष समर्थन प्राप्त था। मन्त्रिमण्डल द्वारा मंत्रणा करने के उपरान्त जो भी निर्णय होता था वह पूर्णतया भेदनीति पर ही अवलम्बित था । अभिप्राय यह है कि युद्ध न करने तथा करने वाली दो राजनैतिक विचारधारात्रों के मध्य सामंजस्य स्थापित करने के लिए 'भेद नीति' की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है । यही कारण है कि 'भेद' नीति के द्वारा शत्रु को निर्बल करने के उपरान्त युद्ध करने के प्रश्न पर दोनों पक्षों का समझौता हो जाता था तथा युद्ध की घोषणा कर दी जाती थी। चन्द्रप्रभ० में वर्णित मंत्रिमण्डल की चर्चा-परिचर्चा के निष्कर्षानुसार अन्त में मुख्यमन्त्री का यह निर्णय कि शत्रु को एक मास के अन्त में अभीष्ट हाथी देने अन्यथा युद्ध के लिए तैयार रहने का निर्णय भेद नीति पर ही प्राधारित था ।' चन्द्रप्रभ० में यहाँ तक स्वीकार किया गया है कि भेद नीति द्वारा निर्बल राजा भी शक्तिशाली राजा पर विजय प्राप्त कर सकता है। भेदनीति तथा प्रलोभन-- हम्मीर महाकाव्य में वर्णित अलाउद्दीन की राज्यसभा में मंत्रिमण्डल के विचार विमर्श की स्थिति विद्यमान होते हुए भी अलाउद्दीन ने सभी राज दरबारियों १. चन्द्र०, १६.२५ २. वराङ्ग०, १६.५७ ३. परवृद्धिनिबद्धमत्सरे विफलद्वेषिणि सामकीदृशम् । चन्द्र०, १२.८५ ४. वराङ्ग० १६.७०-७२, चन्द्र०, १२.१०६ ५. वही ६. तु०–करिणं प्रदिशामि निश्चितं समरं वाहनि मासपूरणे । -चन्द्र०, १२.११० ७. अमियातुमतः प्रयुज्यते भवतो वृद्धिमतः क्षये स्थितः । प्रभवेत्खलु माग्यसंपदा सहितः स्थानगतोऽप्यरातिषु ॥ -वही०, १२,६७
SR No.023198
Book TitleJain Sanskrit Mahakavyo Me Bharatiya Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohan Chand
PublisherEastern Book Linkers
Publication Year1989
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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