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________________ राजनैतिक शासन तन्त्र एवं राज्य व्यवस्था सामन्त युगीन मध्यकालीन 'राज्य संस्था का स्वरूप-- लगभग सातवीं शताब्दी से बारहवीं शताब्दी ई० तक के भारतीय इतिहास को मध्य-युग की संज्ञा दी जाती है ।' राजनैतिक अराजकता इस युग की विशेषता है। छठी शताब्दी में गुप्त साम्राज्य के अन्त के साथ भारत के उत्तरी भाग में तुर्कअफगानों आदि आक्रान्ताओं के शासन स्थापित होने प्रारम्भ हो गए थे। राजनैतिक एकता के अभाव के कारण सम्पूर्ण भारत छोटे-छोटे राज्यों में विभक्त हो गया था। साम्राज्य काल में विद्यमान राजनैतिक एकता तथा राष्ट्रीय भावना का स्थान अब वैयक्तिक शक्ति-संवर्धन तथा सामन्तवादी प्रवृत्तियों ने ले लिया था। आठवीं सदी में उत्तरी भारत में पाल, गर्जर-प्रतीहार, कर्कोटक आदि तथा दक्षिण भारत में राष्ट कूट, चालुक्य, पल्लव, गङ्ग, चोल आदि राजवंशों के अपने स्वतन्त्र राज्य स्थापित हुए तथा इन्हीं राज्यों में ही उत्थान-पतन होता रहा । कभी कोई एक राजवंश शक्ति में आ जाता था तो अन्य निर्बल राज्यों को उसकी अधीनता स्वीकार करनी पड़ती थी। प्रायः राजा दिग्विजय के लिए प्रयाण करते थे और अन्य राजाओं को प्राधीनता स्वीकार करने के लिए बाध्य करते हुए विभिन्न भेंटों, उपहारों आदि से कोष संचय करने एवं सैन्यशक्ति जुटाने में ही विशेष प्रयत्नशील थे । गुप्त वंश के काल से ही सामन्त पद्धति (फ्य डल सिस्टम) का बीजारोपण हो चुका था, परिणामतः विवेच्य युग में सामन्त-पद्धति पूरे वेग से विकसित हो रही थी। यूरोप के मध्यकालीन इतिहास में पाई जाने वाली सामन्ती प्रवृत्तियां भारत में भी प्रतिष्ठित होने लगी थीं और राजनैतिक जगत् में 'मात्स्यन्याय' ही सर्वोपरि बन चुका था। नैतिकता एवं राजशास्त्रोक्त प्रादर्शों के अभाव के कारण इस युग को अराजकता अथवा अन्धकार-युग की संज्ञा भी दी जाती है। सामन्त-पद्धति के कारण यह सम्भव ही नहीं हो पाया कि राजा प्रजा के हितों की ओर ध्यान दे क्योंकि उसकी सम्पूर्ण शक्ति तथा कोष का उपयोग आत्मरक्षण अथवा साम्राज्य-विस्तार पर ही होने लगा था। इस युग के राजनैतिक विचारकों में स्मृतिकारों तथा निबन्ध-ग्रन्थ-लेखकों का प्राधिक्य पाया जाता है । इन विचारको ने भी 'राजनीति' को कोई नया मोड़ नहीं दिया अपितु प्राचीन धर्मशास्त्रों के वचनों की पुनरावृत्ति मात्र ही की है। इन स्मृतियों ने जातिवाद, वर्ण-व्यवस्था आदि सामाजिक सङ्कीर्णताओं का विशेष प्रचार किया है । फलतः राजनैतिक वातावरण की राष्ट्रीय पृष्ठभूमि का स्थान अब किसी संस्कृति विशेष अथवा समुदाय विशेष ने ले लिया था। ब्राह्मण संस्कृति तथा जैन संस्कृति को प्रश्रय देने के बहाने से ही कई महत्त्वपूर्ण राजवंशों ने साम्प्रदायिक आधार पर ही राज्य किया । पालोच्य युग की १. सत्यकेतु विद्यालङ्कार, प्राचीन भारतीय शासन व्यवस्था और राजशास्त्र, पृ० २७० २. काणे, धर्मशास्त्र का इतिहास, भाग २, पृ० ६६६
SR No.023198
Book TitleJain Sanskrit Mahakavyo Me Bharatiya Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohan Chand
PublisherEastern Book Linkers
Publication Year1989
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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