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प्रथम अधिकार ।
[१५ भगवान् श्रीमहावीरस्वामी पधारे हैं॥६८-६९॥ हे महाराज ! उन्हींके प्रभावसे इच्छानुसार फलको देनेवाले और अत्यंत आश्चर्य उत्पन्न करनेवाले ये सब प्रकारके फल पुष्प प्रगट हुए हैं ॥ ७० ॥ यह सुनते ही महाराज उठे और जिस दिशाकी ओर विपुलाचल पर्वत था उस दिशाकी ओर सात पेंड़ चलकर बड़ी भक्तिके साथ भगवान महावीरस्वामीको नमस्कार किया । तदनंतर फिर वे अपने सिंहानपर आ विराजमान हुए ॥७१।। महाराजने प्रसन्न होकर, वस्त्र आभूषण देकर उस मालीका आदर सत्कार किया, सो ठीक ही है क्योंकि प्रिय मुनिराजके पधारनेपर कौनसा जीव संतुष्ट नहीं होता है भावार्थ-सभी जीव संतुष्ट होते हैं ॥७२॥ महाराजने दर्शनार्थ सबको चलनेके लिये भव्य जीवोंको प्रसन्न करनेवाली भेरी बजाई । उसे सुनकर सबलोग चलनेके लिये तैयार होगये ॥ ७३ ॥ महाराज श्रेणिक अपनी रानी चेलनाके साथ, नगर निवासियोंके साथ और सेनाके साथ हाथी पालकः ॥६८॥ स तं जगाद भूपेंद्र ! विपुलाचलमस्तके । महावीरः समायातस्त्रिभुवनेंद्रप्रपूजितः ॥६९।। अतिविस्मयकारीणि विश्वपुष्पफलानि वै । तत्प्रभावान्नृपाभूवन् मनोवांच्छितदानि हि ॥ ७० ॥ सप्तपदावलीं गत्वा संनम्य तद्दिशं नृपः । भक्तिभारेण संयुक्तः सिंहासने स्थितो वरः ॥७१॥ हृष्टः स पूनयित्वा तं वस्त्राभरणदानतः । को न तुष्यति सज्जंतुः प्रिये समागते मुनौ ॥७२॥ स भेरी दापयामास भव्यहर्षप्रदायिकाम् । तदा लोका हि तां श्रुत्वा बभूवुर्गमनोत्सुकाः ॥७३॥ सप्रियो नागरैः साई ससेनो हर्षिताननः। वीरासन्नं