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चौथा अधिकार।
.[१३५ कुगुरु और हित, अहित आदि कुछ भी नहीं जानते हैं ॥१८८॥ जो लोग अन्यमतके समान ही जैनधर्मको समझते हैं वे लोहेके समान मणिको समझते हैं, पानीके समान अग्निको समझते हैं और अंधकारको दिनके समान समझते हैं ॥१८९॥ जिस पुरुपने अपने कानोंसे भगवान सर्वज्ञदेवके कहे हुए बचन नहीं सुने हैं, उसके जन्मको मुनिराज इस संसारमें व्यर्थ ही समझते हैं ॥ १९० ॥ जिसप्रकार शूकर आदि पशुओंका जन्म व्यर्थ समझा जाता है उसी प्रकार जिस पुरुषने अपने हृदयमें सुख देनेवाले भगवान जिनेंद्रदेवके बचन धारण नहीं किये, उसका जन्म भी व्यर्थ ही समझना चाहिये ॥ १९१ ॥ जिस पुरुषने मोक्षके मुख देनेवाली भगवान जिनेंद्रदेवकी वाणी क्षणभर भी उच्चारण नहीं की उसकी जीभ विधाताने व्यर्थ ही बनाई समझो ॥ १९२ ॥ जिसमें तीनों लोकोंकी स्थितिका वर्णन हो, सात तत्त्व, नौ पदार्थोका वर्णन हो, पांचों महाव्रतोंका वर्णन हो और धर्म, अधर्मका फल बतलाया गया हो वही विद्वानोंके द्वारा जिनवाणी बतलाई जाती है तथा । हिताहितं न जानंति जिनवाग्वनिता नराः॥१८८॥ लोहसमंः मणिं वारि वह्निवदिनवत्तमः । परमतनिभं ये ते मन्वते जिनदर्शनम् ॥ १८९ ॥ कर्णयोर्नश्रुतं येन सर्वज्ञास्योद्भवः वचः । बदंति मुनयो लोके तस्य जन्म निरर्थकम्॥१९०॥ येनापि न धृतं चित्ते जिनवचः सुखास्पदम् । वृथा जन्म गतं तस्य शूकरादिपशोर्यथा ॥ १९१ ॥ क्षणं नोच्चरिता येन जिनवाणी शिवप्रदा। मुधैव निर्मिता तस्या रसना विश्वकर्मणा ॥१९२॥ त्रैलोक्यस्थितितत्त्वार्थसर्वमहाव्रतान्वि