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________________ चौथा अधिकार | [ ११७ ॥ ९३ ॥ गौतमने मार्गमें विचार किया कि जब मुझसे इस ब्राह्मणका ही उत्तर नहीं दिया गया है तो फिर इसका गुरु तो बड़ा भारी विद्वान होगा उसका उत्तर किसप्रकार दिया जायगा । ( जब यही वशमें नहीं होसका है तो फिर इसका गुरु किसप्रकार वश किया जायगा ) ॥ ९४ ॥ इसप्रकार वह सौधर्म इंद्र गौतम ब्राह्मणको समवसरण में लेजाकर बहुत ही प्रसन्न हुआ सो ठीक ही है क्योंकि अपने कार्यकी सिद्धि होजानेपर कौनसा मनुष्य संतुष्ट नहीं होता है अर्थात सभी संतुष्ट होते हैं ।। ९५ ।। जिसने अपनी शोभासे तीनों लोकों में आश्चर्य उत्पन्न कर रक्खा है ऐसे मानस्तंभको देखकर गौतमने अपना सब अभिमान छोड़ दिया ।। ९६ ।। वह मनमें विचार करने लगा कि जिस गुरुकी पृथ्वीभरमें आश्चर्य उत्पन्न करनेवाली इतनी विभूति है वह क्या किसीसे जीता जा सकता है ? कभी नहीं ।। ९७ ।। तदनंतर भगवान वीरनाथ के दर्शन कर वह गौतम उनकी स्तुति करने लगा | वह कहने लगा कि हे प्रभो ! आप कामरूपी योद्धाको जीतनेवाले विश्वजनसमावृतौ ॥९३॥ चिंतितं तेन मार्गे वै द्विजोऽसाध्योऽभवद्यदा । तदा गुरुर्महान्नस्य कथं साध्यो भविष्यति ॥ ९४ ॥ समवसरणे नीत्वा वृषा वै हर्षितोऽभवत् । कार्ये सिद्धिं समायाते को न तुष्यति मानवः ॥९९॥ मानस्तंभं तमालोक्य मानं तत्याज गौतमः । निजप्रशोभया येन विस्मितं भुवनत्रयम् ॥ ९६ ॥ इति विचिंतितं तेन मही विस्मयकारिका । यस्य गुरोरियं भूतिः स किं केनापि जीयते ॥९७॥ ततो वीरं तमालोक्य शुभां स्तुतिं चकार सः । कामसुभट •
SR No.023183
Book TitleGautam Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchandra Mandalacharya, Lalaram Shastri
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1926
Total Pages214
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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