SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 122
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चौथा अधिकार। [११३ उसके हाथमें थी, मुहमें एक भी दांत नहीं था और बोलते समय पूरे अक्षर भी नहीं निकलते थे। इसप्रकार जाकर उसने कहा कि 'हे ब्राह्मणो! इस पाठशालामें समस्त शास्त्रोंको जाननेवाला और सब प्रश्नोंके उत्तर देनेवाला कौनसा मनुष्य है ॥ ७५-७६ ॥ इस संसारमें ऐसा मनुष्य बहुत ही दुर्लभ है जो मेरे काव्यको विचारकर और उसका यथार्थ अर्थ समझाकर मेरी आत्माको संतुष्ट करे ॥ ७७॥ इस श्लोकका अर्थ समझनेसे मेरे जीवनका उपाय निकल आवेगा । आप धर्मात्मा हैं इसलिये आपको इस श्लोकका अर्थ बतला देना चाहिये ॥७८॥ केवल अपना पेट भरनेवाले मनुष्य संसारमें बहुत हैं परन्तु परोपकार करनेवाले मनुष्य इस पृथ्वीपर बहुत ही थोड़े हैं ॥ ७ ॥ मेरे गुरु इससमय धर्म-कार्यमें लगे हैं, वे इस समय ध्यान कर रहे हैं, मोक्ष पुरुषार्थको सिद्ध कर ध्वनिनिर्गमः ॥ ७३ ॥ वाईकं वपुरादाय कंपमानः पदे पदे । तदा गौतमशालायां स गतो ब्रह्मपत्तने ॥७४॥ तत्क्षणे तेन संप्रोक्तं बचो लुप्ताक्षरैर्युतम् । यष्टिसंधृतहस्तेन दंतहीनमुखेन च ॥ ७५ ॥ अहो बाडव सत्कांत निःशेषशास्त्रकोविदः । नरः कोस्त्यत्र शालायां सत्प्रत्युत्तरदायकः॥७६॥ काव्यं विचार्य मे योऽपि कथयित्वा यथार्थकम् । सुखी करोति मे जीवं लोके स दुर्लभो जनः ॥७७॥ ममापि जीवनोपायः श्लोकार्थेन भविष्यति । अतो धर्मिष्ठमान कथनीयं च तत्त्वया ॥७८॥ संति वै बहवो माः स्वकीयोदरपूरकाः । परोपकतिनो ये हि विरलास्ते धरातले ॥७९॥ गुरुयों मे वृषग्राही ध्यानी सर्वार्थसाधकः । स च मां प्रति नो वक्ति स्वपरकार्यतत्परः ॥८॥
SR No.023183
Book TitleGautam Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchandra Mandalacharya, Lalaram Shastri
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1926
Total Pages214
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy