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चौथा अधिकार |
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वनमें पहुंचकर पांडुक शिलाके समीप पहुंचे । वह शिला सौ योजन लंबी, पचास योजन चौड़ी और आठ योजन ऊंची थी । उसपर एक मनोहर सिंहासन था, उसपर देवोंने बालक भगवानको विराजमान किया और फिर वे भक्तिसे नम्रीभूत होकर भगवानका अभिषेक करनेका उत्सव करने लगे ॥३२३३ || मणि और सुवर्णके बने हुए एक हजार आठ कलशोंसे क्षीरोदधि समुद्रका जल लाकर इंद्रादिक देवोंने भगवानका अभिषेक किया ||३४|| इस अभिषेक में मेरु पर्वत कंपायमान होगया परंतु बालक भगवान निश्चल ही बने रहे । उसी समय इन्द्रादिक देवोंको भगवान तीर्थकर परमदेवका स्वाभाविक बल मालूम हुवा ॥ ३५ ॥ तदनंतर इंद्रादिक देवोंने जन्म मरण आदिके दुःख दूर करनेके लिये जल, चंदन आदि आठों शुभ द्रव्योंसे स्वर्ग मोक्षको देनेवाली भगवानकी पूजा की ||३६|| भगवान जिनेंद्रदेवकी पूजा सूर्यकी प्रभाके समान है। जिसप्रकार सूर्यकी प्रभा प्रकाश शेतालादीन दधिरे सुरयोषितः ॥ ३१ ॥ पांडुकबनमासाद्य पाडुकं बलसच्छिलाम् | योजनाष्टोच्छ्रयां पंचाशद्विस्तृतां शतायतिम् ॥३२॥ तस्यां सिंहासने देवास्तं विनिवेश्य बालकम् । उत्सवमभिषेकस्य भक्तिनम्राः प्रचक्रिरे ||३३|| क्षीरोदधेः समानीतैरष्टाधिकसहस्रकैः । मणिकुंभैः सुरेंद्राद्या अभिचित्सुरा जिनम् ॥ ३४ ॥ कंपिते शैलराजेऽस्मिन् घ्राणजलशिशुक्षुता । इंद्रादयस्तदापेतुर्जिनानां सहजं बलम् ॥३५॥ जन्मदाहविनाशाय स्वर्गापवर्गदायिनीं । जलादिभि: शुभद्रव्यैस्तदच चक्रिरे सुराः ॥ ३६ ॥ धर्मोद्योतविकाशंती दुष्कृतध्वांत