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________________ ६४ * पार्श्वनाथ चरित्र # और जिन-पूजन तथा निर्विकल्प दानको हाथका मूषण मानते हैं, वेही झटपट इस संसार रूपी समुद्रसे तर जाते हैं। जो विकल्पपूर्ण वित्तसे देवार्चन करता है, वह अपना पुण्य गवाँ देता है । इस सम्बन्धमें एक वणिक् पुत्रका दृष्टान्त दिया जाता है वह सुनो “प्रतिष्ठानपुर में वणिक् जातिके दो भाई, रहते थे । वे दोनों किसी समय अलग-अलग हो गये और अलगही दो दूकानें खोल बैठे। वे दोनोंहो श्रावक थे । एकका नाम नन्दक और दूसरेका भद्रक था । भद्रक रोज सवेरे उठकर दूकानपर जाता और नन्दक जिन मन्दिरमें पूजा करने जाता । उस समय भद्रक अपने मनमें विचार करता, – “ नन्दक धन्य हैं, जो और सब काम छोड़कर रोज सवेरे उठकर जिन पूजा करता है; पर मैं तो पापी हूं । इसीसे मुझे धनकी कमी है और मैं हाय धन - हाय धन करता रहता हूँ । रोज सबेरे दूकानपर आकर पापियोंके मुँह देखा करता हूँ, इसलिये मेरे जीवनको धिक्कार है। इस प्रकार शुभ ध्यानरूपी जलसे वह अपने पापका मैल साफ करता था और उसके अनुमोदन रूपी जलसे अपने पुण्य - बीजको सोचता था । इससे उसने स्वर्गायु बाँधी । इधर नन्दक पूजा करता हुआ सोचता, - “ जबतक मैं इधर पूजा-पाठ करता हूँ, तबतक भद्रक दूकानपर बैठा पैसा पैदा करता है; पर मैं क्या करूँ ? मैंने पहले ही अभिग्रह ले लिया है, इसलिये मुझे विवश हो, पूजा करनेके लिये जाना ही पड़ता है । इस देवपूजासे अच्छा फल मिलना तो दूर
SR No.023182
Book TitleParshwanath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Jain Pt
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1929
Total Pages608
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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