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________________ *प्रथम सर्ग * www को मूति किसन उसे आसन सब देवता हैं ? वहाँको मूर्ति किसने बनवायो है ? उनकी वन्दना करनेसे क्या फल होता है ?" यह सुन उसे आसन्नभवी जानकर अरविन्द मुनिने कहा,--“हे महानुभाव ! वहाँ देवताओंके सब गुणोंसे युक्त अरिहन्त नामके देवता हैं, उनमें अनन्त गुण भरे पड़े हैं और वे अठारह दोषोंसे रहित हैं। कहा है कि अज्ञान, क्रोध, मद, मान, लोभ, माया, रति, अरति, निद्रा, शोक, असत्यवचन, स्तेय मत्सर, भय, हिंसा प्रेम, क्रिया-प्रसङ्ग और हास्य-इन अठारहों दोषोंने जिनके द्वारा नाश पाया है, उन देवाधिदेवको मैं नमस्कार करता हूँ। वहाँ अष्टापदके ऊपर ऋषभ आदि चौबीसों तीर्थंकरोंकी प्रतिमाएँ हैं। ईक्ष्वाकु-कुलमें उत्पन्न श्री आदिनाथ प्रथम तीर्थंकरके पुत्र भरत चक्रवर्तीने अष्टापदपर एक बड़ा भारी दिव्य चैत्य बनवाया है। उसमें ऋषभादि चौवोसों जिनेश्वरोंकी अपने-अपने वर्ण और प्रमाणके अनुसार रत्न-प्रतिमाएं बनवाकर स्थापित की गयी हैं। उनकी बन्दना करनेसे राजत्व और स्वर्ग का साम्रज्य मिलना तो मामूली बात है, मुख्य लाभ मोक्ष प्राप्ति ही है । जिनका भाग्योदय होता है, वही उनके दर्श कर सकते हैं। उनकी पूजा करनेसे नर्क और तिर्यश्च गतियोंसे छुटकारा हो जाता है । इसलिये हे सार्थेश! सुनो, जो भव्य प्राणि जिनाक्षाको अपने सिरकी मुकुट-मणि मानते हैं, सद्गुरुके पास हाथ जोड़े खड़े रहते हैं, शास्त्र श्रवणको कानोंका भूषण मानते हैं, सत्यको जिह्वाका भूषण समझते हैं, प्रणामकी निर्मलताको हृदयका भूषण जानते हैं, तीर्थ यात्रा करना पैरोंका भूषण जानते
SR No.023182
Book TitleParshwanath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Jain Pt
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1929
Total Pages608
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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