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________________ * पार्श्वनाथ-चरित्र. हमें स्नेहका रंग भी पतङ्गके रङ्गकी तरह है। विषय भी पहले तो मधुर पड़ते हैं, पर अन्तमें दुःख ही देते हैं। यह संसार सदा असार मालूम होता है इसमें कोई चीज़ ठहरनेवाली नहीं है। मनुष्य शरीरको प्रतिदिन क्षीण होते नहीं देखता; पर यह पानीमें पड़े हुए कच्ची मिट्टीके घड़ेकी तरह क्षण-क्षण छीजता जाता है। पद-पदपर आघात प्राप्त होनेवाले बध्यजनकी भाँति दिन-दिन मृत्यु प्राणियोंके पास आती है। ओह ! माता-पिता, भाई और स्त्री-पुत्रके देखते-देखते प्राणो अशरण होकर अपने कर्म-योगसे यमके घर चला जाता है। इस संसार में सब कुछ अनित्य है। कहा भी है कि—“हे पामर प्राणी! जबतक तुम्हें जरा नहीं सताती, व्याधि नहीं व्यापती और इन्द्रियाँ शिथिल नहीं होतीं, तभीतक धर्म कमा लो, ठीक है। वही महानुभाव पुण्यवान् है, जो राज्यको छोड़कर सद्गुरुके पास जाकर व्रत अङ्गीकार कर लेता है। मैं ही राज्यके लोभमें पड़ा हूँ। मेरा यौवन तो बीत ही गया, इसलिये अब मुझे शीघ्रही दीक्षा अङ्गीकार कर लेनी चाहिये। स्त्री, पुत्र और राज्य भला कब किसके हुए हैं ? इस प्रकार विचार करते हुए राजा वैराग्यको प्राप्त हुए और उन्होंने अपने स्वजनोंके सामने हो पञ्चमुष्टि-लोच करना आरम्भ किया। इस तरह राजाको विरक्त और व्रतोत्सुक जान उनकी स्त्रियाँ बड़ी दुःखित होकर कहने लगी,—“हे प्राणप्रिय ! आपके राज्य परित्याग करनेकी वज्र-तुल्य बात सुनकर हमारे हृदयके सौ-सौ टुकड़े हो रहे हैं। हे स्वामी ! हे प्राणेश्वर! आप प्रसन्न
SR No.023182
Book TitleParshwanath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Jain Pt
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1929
Total Pages608
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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