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________________ * प्रथम सर्ग : हाँ, पिता यदि पुत्रको शिक्षा देता है, तो उससे पुत्रका गौरव ही बढ़ता है ; क्योंकि कहा है कि :- "पितृभिस्ताडितः पुत्रः, शिष्यस्तु गुरुशिक्षितः। - घनाहतं सुवर्ण च, जायते जन-मण्डनन् ॥" __अर्थात्-“पितासे शासित पुत्र, गुरुसे शिक्षित शिष्य और घनकी चोट खाया हुआ सोना मनुष्योंका मण्डन हो जाता है।" फिर उपालम्भ बिना अपने पुत्रका ऐसा माहात्म्य क्योंकर देखने में आता ? हे पुत्र ! मेरा भाग्य अभीतक सोया नहीं है, क्योंकि तुम आ पहुँचे । क्या कहूँ, तुम सब तरहसे योग्य हो। यह राज्य, यह महल, यह सारे पुरजन-परिजन तुम्हारे ही हैं। तुम इन्हें स्वीकार करो और प्रजाका पालन करो। मैं पूर्वजनोंके आचरणके अनुसार गुरुके पास जा, व्रत ग्रहण करूँगा।" पिताके वियोगकी सूचना देनेवाली बातें सुन ललिताड़ने बड़े खेदके साथ कहा,-पिताजी ! मेरे इतने दिन तो निष्फल गये ही, कि मैं आप गुरुजनोंको सेवा न कर सका ; अब भी आपकी सेवासे मैं वंचित रहूँ, ऐसी आज्ञा मत सुनाइये। ऐसे राज्य या जोवनसे हो क्या लाभ, जिसमें प्रतिदिन पिताका प्रसन्न मुख और उनके चरणारविन्दोंके दर्शन न हों। जैसी अपार शोभा मुझे आपके सामने वैठनेसे प्राप्त होगी, उसका सौआं हिस्सा भी सिंहासनपर बैठनेसे नहीं मिलनेका। मैं आपकी सेवाका इच्छुक हूँ, इसलिये आप सिंहासनपर बैठकर प्रजाका पालन करें, राज्य चलायें और मुझे अपनी सेवा करनेका अवसर दें, जिससे मैं
SR No.023182
Book TitleParshwanath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Jain Pt
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1929
Total Pages608
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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