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________________ ४० wwwr * पार्श्वनाथ चरित्र और हाथ जोड़े हुए विनय और भक्तिके साथ कहा,-"पिताजी ! माता-पिताका हृदय शीलत करनेवाले पुत्रको शास्त्रकारोंने चन्दनको उपमा दी है और कुलदीपक कहा है, पर मैं ऐसा कुपूत पैदा हुआ कि आपको दुःख ही देता रहा। कितने ही पुत्र अपने कुलके लिये चिन्तामणिके समान होते हैं, पर मैं तो कीड़े-मकोड़ेकी तरह ही हुआ। मुझ पापीने प्रति-दिन आपको प्रणाम भी नहीं किया, और क्या कहूँ ? लड़कपनसे आजतक मैं केवल मां-बापको दुःख देनेवाला ही हुआ। अब मेरे सारे अपराध क्षमा कर आप मेरे श्वसुरके दिये हुए चम्पाके राज्यको स्वीकार कीजिये और जिसे उवित समझिये, दे डालिये। आपको यह पुत्रवधू आपको प्रणाम करती है, इसे जो कुछ आशा हो, दीजिये ।” कुमार ये बातें कह रहे थे, इसी समय उनके पिताने बाँहें फैलाकर उन्हें अपने विशाल हृदयमें लगा लिया और पूर्णिमाके चन्द्रमाके समान अपने पुत्रका मुख देखते हुए हर्षित हृदयसे उनका माथा चूमते हुए गद्गद्वरसे बोले,–“मेरे कुलदीपक पुत्र! ऐसी बातें न करो। सोना कभी काला नहीं हो सकता । सूर्य कभी पूरब छोड़ पच्छिम में नहीं उगता। कल्पवृक्षके समान तुमपर मैंने बड़ा अन्याय किया । पर मैं बुढ़ापेके कारण भूलकर बैठा था, तो भा तुम्हें ऐसा करना उचित नहीं था। तुम्हारे वियोगमें मुझे जो दुःख हुआ, वह किसी शत्रु को भी न हो। इससे तुम्हारी तो कुछ हानि नहीं हुई; क्योंकि हंस तो जहाँ कही जाता है, वहीं भूषण रूप हो रहता है ; पर हानि उस सरोवरकी होती है, जिसको वह छोड़ जाता है।
SR No.023182
Book TitleParshwanath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Jain Pt
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1929
Total Pages608
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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