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________________ * माठवा सर्ग * ५४७ बाह्य परिवारका त्याग कर उन्होंने शास्त्राध्ययनको अपना पिता, जिन भक्तिको जननी, विवेकको बन्धु, सुमतिको भगिनी, विनयको पुत्र, संतोषको मित्र, शमको भवन और अन्यान्य गुणोंको अपना सम्बन्धी बनाया। इस प्रकार अन्तरंग परिवारका आश्रय ग्रहण कर पवित्र चारित्रका पालन करते हुए, अन्तमें वे सहस्रार नामक देवलोकमें देवता हुए। इस प्रकार भगवानने उन तीनों का उद्धार किया। लूरा नामक गांवमें अशोक नामक एक मालो रहता था। वह सदा पुष्पोंका क्रय विक्रय किया करता था। एक बार उसने गुरुमुखसे सुना कि जिनेश्वरके नव अंगोंको नव पुष्पोंसे पूजा करनेपर मोक्षसुखकी प्राप्ति होती है। तबसे वह नित्य इसी प्रकार पूजा करने लगा। इस पूजाके प्रभावसे वह उस जन्ममें महर्द्धिक हुआ और दूसरे जन्ममें भी नव कोटिका खामी हुआ। इस प्रकार सात जन्मके बाद आठवें जन्ममें वह नव लाख गावोंका और नवें जन्ममें नव करोड़ गावोंका राजा हुआ। अनन्तर पार्श्वप्रभुसे अपने पूर्व जन्मोंका वृत्तान्त सुन कर उसने दीक्षा ले लो और अन्तमें मोक्षका अधिकारो हुआ। इसी तरह भगवानने अनेक जोवोंका उद्धार किया। प्रभुका परिवार-सोलह हजार साधु, २८ हजार साध्वी, एक लाख चौंसठ हजार धावक, तीन लाख सत्ताई हजार श्राविकाय, ३५७ चौदपूर्वो, १४०० अवधिज्ञानी, ७५० केवली और
SR No.023182
Book TitleParshwanath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Jain Pt
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1929
Total Pages608
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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