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•पाश्चारित्र
बार उसे निष्फलता प्राप्त होगी।" : विद्याधरकी यह बात सुन राजाने पुनः श्रीगुप्तको बुलाकर लोहेका गोला उठानेकी आज्ञा दी। श्रीगुप्त तुरत इसके लिये तैयार हो गया, किन्तु इस बार ज्थोंही उसने वह गोला उठाया, त्योंही उसके दोनों हाथ जल गये। यह देखकर लोग श्रीगुप्तको धिक्कारने लगे और सजाकी जय पुकारने लगे।
अनन्तर राजाने श्रीगुप्तसे पूछा कि:-“तूने पहले पहावमस्कार कैसे कर दिखाया था ?" श्रीगुप्तने अब झूठ बोलने में कोई लाभ न देखकर राजाको सञ्चा हाल बतला दिया। इसके बाद राजाने उससे चोरीका सारा धन. छीन लिया, और उसे मित्रका पुत्र समझ कर प्राण दण्डकी सजा न देकर अपने राज्यसे निर्वासित कर दिया।
श्रीगुप्त इस प्रकार निर्वासित हो इधर उधर भटकने लगा। एक बार वह भटकता हुआ रथनूपुर नगरमें जा पहुंचा। यहां उसने उस मंत्रवादी सिद्ध विद्याधरको देखा। उसे देखते ही
उसके हृदय में प्रति हिंसाकी भयंकर ज्वाला प्रज्वलित हो उठी। । उसने उसे अपनी इस अवस्थाका मूल कारण और अपना शत्रु -समझ कर उसे मार डालना स्थिर किया और एक दिन अवसर
मिलते ही इस विचारको कार्य रूपमें परिणत कर डाला, किन्तु । दुर्भाग्यवश, ज्योंहीं वह उसे मारकर भागने लगा। ज्योंही. मगर निवासियोंने उसे पकड़ कर कोतवालके सिपुर्द कर दिया। कोतबालने से राजाके सम्मुख उपस्थित किया और राजाने उसी