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________________ * प्रथम सर्ग * ३३ सेठसे कहने लगा, – “हे उपकारियोंमें मुकुट मणिके समान सार्थवाह ! तुम्हारी सदा जय हो। इस संसारमें वही धन्य है, जिसे दूसरोंकी भलाई करनेमें आनन्द मालूम होता है। कहा भी है कि, सज्जनों की सम्पत्ति परोपकारमें ही खर्च होती है, नदियाँ परोपकार के ही लिये बहती हैं, वृक्ष परोपकारके ही लिये फलते हैं और मेघ परोपकारके ही लिये पृथ्वीपर जल बरसाते हैं । साथ ही यह भी कहा है कि विपत्तिमें धैर्य धारण करनेवाला, अभ्युदयमें क्षमा रखनेवाला, सभामें चतुराईसे बोलनेवाला, संग्राममें वीरता दिखानेवाला, कीर्तिकी इच्छा रखनेवाला, और शास्त्र श्रवण करनेका व्यसन रखनेवाला ये सब महात्मा हैं और संसार में स्वभावसे ही सिद्धगुण वाले हैं ; अर्थात् महात्माओंका ऐसा स्वभाव ही है। ह सेठ ! तुमने न केवल मेरे ही प्राण बचाये, बल्कि मेरे अन्धे माँबापके भी प्राण बचा लिये। हे उपकारी ! सुनो, मनुष्यकी नक़ली मूर्त्ति खेतकी रखवाली करती हैं, हिलती-डोलती हुई ध्वजा महल की रक्षा करती है, भूसी अन्नकी रक्षा करती है, दाँतों तले दबाया हुआ ऋण प्राणोंकी रक्षा करता है, ऐसी-ऐसी सामान्य वस्तुएँ भी रक्षाका काम करती है; फिर जिससे किसीको रक्षा नहीं होती, ऐसे मनुष्यके होनेसे ही क्या लाभ हुआ ?" फिर भी शुकने कहा, “हे सेठ ! मेरे गुरुने मुझे बतलाया था कि समुद्रमें हरिमेल नामका एक द्वीप है, जिसके ईशान कोणमें दिव्य-प्रभाववाला एक आमका पेड़ है; उसका फल खानेसे रोग और बुढ़ापा नहीं व्यापते और नयी जवानी मिलती है। यही सुनकर मैंने विचार किया कि -
SR No.023182
Book TitleParshwanath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Jain Pt
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1929
Total Pages608
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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