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________________ * प्रथम सर्ग * ३१ उसी समय उसो धीरे बड़ा हुआ । उसके पर हो आये । एक दिन वह बाल चापल्य के कारण उड़ता हुआ थोड़ी दूरतक चला गया। इससे उसे थकावट आ गयी और मुंह बाकर पड़ गया । तरफसे एक तपस्वो जल लाने जा रहे थे । उन्हें उस बच्चेको देखकर बड़ी दया उपजी । उन्होंने दया करके उसे उठा लिया और अपने वल्कल - वस्त्रसे उसे हवा करने लगे । एवं उसे अपने कमण्डलसे जल निकालकर पिलाया और अपने आश्रममें ले गये । वहाँ स्वादिष्ट नीवारके फल खिला और निर्मल जल पिलाकर वे उसे पुत्रकी तरह पालने-पोसने लगे। धीरे-धीरे वह पक्षो बड़ा हुआ। तापसोंने उसका नाम शुकराज रखा। उसे लक्षणवान् जानकर कुलपतिने उसे पढ़ाना शुरू किया । उसके माता-पिता भी वहीं आकर रहने लगे । एक दिन कुलपतिने अपने शिष्योंसे कहा, “प्यारे शिष्यो ! मेरी बात सुनो। समुद्र में हरिमेल नामका द्वीप है । वहाँ ईशानकोणमें एक बड़ा भारी आमका पेड़ है । उसमें निरंतर फल लगे रहते हैं । उसपर विद्याधर, किन्नर और गन्धर्व वास करते हैं । वह वृक्ष बड़ा दिव्य प्रभाववाला है। उसके फलको जो खाता है, वह रोग, दोष और जरासे मुक्त हो जाता है और उसे नव-जीवन प्राप्त हो जाता है ।” शुकको यह बात सुनकर बड़ी प्रसन्नता हुई। उसने सोचा, - " गुरुजीने तो बड़ी अच्छी बात बतलायी । मेरे माता-पिता बहुत बूढ़े हो गये हैं। उनकी आंखोंसे सुकता नहीं है। इसलिये उन्हें
SR No.023182
Book TitleParshwanath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Jain Pt
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1929
Total Pages608
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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