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________________ * सप्तम सर्ग * ४८५ - “यदि मेरे जीवनसे राजाकी जीवन-रक्षा होती हो, तो मैं अपना जीवन देनेके लिये तैयार हूँ ।" रतिसुन्दरीकी यह बात सुन मन्त्रीको बड़ा ही आनन्द हुआ और उसने उसके पतिप्रेमकी भूरिभूरि प्रशंसा की। इसके बाद महलके झरोखे के नीचे एक बड़ासा कुण्ड तैयार कराकर, मन्त्रीने उसमें चन्दनके फाष्ट भरवाये | इधर रानी ने भी वितारूढ़ होनेकी तैयारी की । वह स्नान- - विलेपन कर, सुन्दर वस्त्र पहन, राजाके पास गयी और उन्हें नमस्कार कर कहने लगी, – “हे नाथ! ईश्वर आपको दीर्घजीवी करे । मैं अग्नि कुण्डमें प्रवेश करने जा रही हूं।” राजाने उद्विग्न हो कहा, “ नहीं, प्रिये ! मेरे लिये इस प्रकार तेरा प्राण त्याग करना ठीक नहीं । पूर्वकृत कर्म मुझे ही भोग करना चाहिये ।” रानीने राजाके पैर पकड़कर कहा, " हे स्वामिन् | ऐसा न कहिये । आपके निमित्त प्राण त्याग करनेमें मैं अपने जीवनकी सार्थकता समझती हूँ ।" यह कहकर रानी बलात् अपनेको राजाके ऊपरसे उतार कर झरोखेकी राह धाँय-धाय जलते हुए अग्निकुण्डमें कूद पड़ी। उसके कूदते ही राक्षसने सन्तुष्ट होकर कहा, " हे वत्से ! तेरा यह सत्व देखकर मुझे परम सन्तोष हुआ है। तुझे जो इच्छा हो वह वरदान मांग ले, मैं देने को तैयार हूं ।” रानीने कहायदि आप वास्तवमें प्रसन्न हैं तो मेरे स्वामीको समस्त रोगोंसे मुक्त कीजिये !" यह सुन राक्षसने कहा, – “तथास्तु ।" इसके बाद उसने रानीको अग्निकुण्डसे निकालकर स्वर्ण सिंहासनपर बैठाया और राजाका अमृतसे अभिषेक किया । -----
SR No.023182
Book TitleParshwanath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Jain Pt
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1929
Total Pages608
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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