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________________ * सप्तम सग गुठली निगल जानेसे दतून करते समय प्रतिदिन पांच सौ स्वर्ण मुद्रायें प्राप्त होती हैं। यही दोनों फल लाकर इन दोनोंको देने चाहिये। परोपकार करनेसे जन्म सफल हो जाता है। किसीने कहा भी है, कि जिस दिन परोपकार किया जाता है, वही दिन सफल होता है। अन्य दिनोंको तो निष्फल ही गये हुए समझना चाहिये। अन्धकारको दूर करनेके कारण ही सूर्यकी महिमा है, ग्रीष्मऋतुके कष्ट दूर करनेके कारण ही मेधकी प्रशंसा होती है। और थके हुए मनुष्योंको विश्रान्ति देनेके कारण हो वृक्ष आदरकी दृष्टि से देखे जाते हैं। इसी तरह तालाब स्वयं जल नहीं पीते न वृक्ष स्वयं फल भक्षण करते हैं। वह तो दूसरोंके ही उपकारक होते हैं। सव बात तो यह है, कि सजनों का सब कुछ परोपकारके हो लिये होता है। हम लोगोंको भी इस अवसरसे लाभ उठा कर कुछ परोपकार करना चाहिये । यह सुन शुकने कहा,—“प्रिये ! तूने उन फलोंकी बात अच्चे मौके पर याद दिलायो है। चलो, हम दोनों चलं, और इसी समय उनके फल ले आवें ।" यह कह वे दोनों पक्षो सुकुट पर्वतकी ओर उड़ गये और कुछ ही समयमें वहांसे फल लेकर लौट आये। इधर वयरसेनने इन दोनोंको बातें पहले ही सुन ली थीं, अतएव शुक और शुकीके फल रखते हो उसने बड़ी प्रसन्नताके साथ उनको ले लिया। तदनन्तर वयरसेनको उन दोनों फलोंके गुण और भेद समझा कर शुक और शुकी वहांसे उड़ गये । वयरसेनने दोनों फल चुपचाप अपने पास रख लिये।
SR No.023182
Book TitleParshwanath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Jain Pt
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1929
Total Pages608
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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