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* पाश्वनाथ-चरित्र..
दोनों आपसमें बातें करते हुए कहने लगे,-"हमारे स्वामीको धन्य है, जिन्हें पूर्व जन्मके सुकृत्योंसे इस जन्ममें सुख-समृद्धि प्राप्त हुई है और उस जन्ममें भी ऐहिक पुण्यके प्रभावसे सुगति प्राप्त होगी। हम लोग तो युण्य हीन होनेके कारण सदा दरिद्र ही रहेंगे। न तो हमें इस लोकमें ही सुख मिला न उसी लोकमें मिलेगा। किसीने कहा भी है कि
"श्रदत्त भावाच्च भवेद् दरिद्री, दरिद्र भावात्प्रकरोति पापम् ।
पाप प्रभावान्नरके व्रजंति, पुनरेव पापी पुनरेव दुःखी।" अर्थात्-“पूर्वजन्ममें दान न देनेसे प्राणी दरिद्र होता है। दरिद्रताके कारण वह पाप करता है और पापके प्रभावसे वह नरक जाता है, इस तरह वह बार-बार पापकर्म कर बार-बार दुःख भोग करता है। हम दोनों इसी तरह व्यर्थ ही अपना मनुष्य जन्म गवां रहे हैं। ___ सेवकोंकी यह बातें किसी तरह भयंकरसेठने सुन ली। वह अपने मनमें समझ गया कि अब यह दोनों धर्मकी साधना करने योग्य हो गये हैं। अतः कुछ दिनोंके बाद चातुर्मासिक दिन आने पर अभयंकरने उन दोनोंसे कहा, कि तुम भी हमारे साथ जिन पूजा करने चलो। इससे दोनों जन अभयंकरके साथ पूजा करने गये। वहाँ पवित्र वस्त्र पहनकर शुद्धभावसे जिनपूजा करते हुए अभयंकरने उनसे कहा,-"इन पुष्पादिसे तुम लोग भी जिनपूजा करो।" यह सुनकर उन्होंने कहा, "जिसके पुष्प होंगे, उसीको फल मिलेगा-हमलोग तो केवल वेगार ही करने भरके होंगे।