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________________ पार्श्वनाथ-चरित्र * “हे परोपकारी! हे प्राणदाता! आज तेरी ही बदौलत मेरा पुनर्जन्म हुआ है, इसलिये तू मुझे प्राणसे भी अधिक प्रिय मालूम हो रहा है। अब तुझसे मेरा यही निवेदन है कि तुम दोनों मेरे दिये हुए फल रोज स्वेच्छापूर्वक भक्षण किया करो। मुझे आशा है कि तुम मेरा यह निवेदन स्वीकार कर मुझे ऋणमुक्त होनेका अवसर दोगे।" यह सुन शुकने दुर्विनीतकी प्रार्थना स्वीकार कर ली। अब दुर्विनीत प्रतिदिन अंगूर और अनार प्रभृति फल लाता और एक पात्रमें रख, उन्हें वृक्षपर रख देता। शुक युगल उन फलोंको खाकर आनन्द मनाते रहे। ____ एक बार कनकने किरानेका भाव जाननेके लिये अपने अनु. चरोंको सिंहलद्वीप भेजा और स्वयं वहीं जंगलमें रह गया। एक दिन वह ताम्रपात्रमें जल लेकर झाड़ा फिरनेके लिये एक ओर जंगलमें गया। वहां एक वृक्षके नीचे काली शिला पड़ी हुई थी। उसी पर ताम्रपात्रको रखकर वह नित्य कर्मसे निवृत्त हुआ। शिलापर रखते ही ताम्रपान सोनेका हो गया। यह देखकर कनकको बड़ा आश्चर्य हुआ, साथ ही उसके चेहरेपर आनन्द छा गया। वह उस शिलापर एक चिह्न बनाकर डेरेकी ओर चल पड़ा। रास्तेमें दुर्विनीतसे भेंट हो गयी। पिताके हाथमें स्वर्णपात्र देखकर दुर्विनीतके कान खड़े हो गये। उसने पूछा,-"पिताजी ! यह स्वर्णपात्र किसका है ?" कनकने कहा,-"बेटा ! यह हमारा नहीं है। किन्तु दुर्विनीतको इस बातपर विश्वास न हुआ। उसने पिताके पहले ही डेरेपर पहुँचकर इस बातकी जांच की
SR No.023182
Book TitleParshwanath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Jain Pt
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1929
Total Pages608
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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