SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 474
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ * सप्तम सर्ग ४२७ प्रियपात्र था। और उसे देखते ही लोग प्रसन्न हो उठते थे। किन्तु छोटा पुत्र बड़ा ही दुर्विनय', कटुभाषी और उहण्ड था। अतएव लोगोंने गुण देख कर बड़ेका नाम सुविनीत और छोटेका नाम दुर्विनीत रख दिया। दोनों इसी नामसे सर्वत्र प्रसिद्ध थे। एक बार कनकने नाना प्रकारकी वस्तुओंसे पांच सौ गाड़े भरा कर, स्त्री पुत्र और परिवार सहित व्यापारके लिये सिंहलद्वीपकी ओर प्रस्थान किया। तीस योजन मार्ग तय करनेके बाद एक बहुत बड़ा वन मिला। उसमें विविध वाटिकाओंसे सुशोभित, देवताओंके क्रोड़ा भवनके समान मनोहर श्रीऋषभदेव स्वामीका एक चैत्य दिखायी दिया। उसके पास एक आम्रवृक्षके नीचे तम्बू खड़ा कर कनकने डेरा डाला। भोजन कर विश्राम करनेके लिये शय्या पर सोने गया, किन्तु धनरक्षाकी चिन्ताके कारण उसे निद्रा न आ सकी । इसी समय उस आम्रवृक्ष पर सफेद रंगके तोतेका एक जोड़ा आ बैठा और मनुष्यकी वाणीमें बातें करने लगा। उनकी बातचीत सुनकर कनकको बड़ा ही विस्मय हुआ और वह धन-रक्षाको चिन्ता छोड़ ध्यानपूर्वक उनकी बातें सुनने लगा। उस समय शुक और शुकीमें इस प्रकार बातचीत हो रही थो: शुक हे प्रिये ! यह बनिया बड़ा ही भाग्यवान है। शुकी-स्वामिन् ! इस बार यह जो माल बेचने जा रहा है, उसमें तो इसे कुछ भी लाभ होनेकी संभावना नहीं है। ऐसी अवस्थामें इसे हम भाग्यवान कैसे कह सकते हैं ?
SR No.023182
Book TitleParshwanath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Jain Pt
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1929
Total Pages608
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy