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________________ KIO etstotreate ******** **** * O o Yetatutatatus Rak**** *****NOM सप्तम सर्ग।। ***** **** Cos**************** 5 ************ * सम्म का देवच्छंदमें जानेपर अद्यगणधर श्रीआर्यदत्त मुनिने इस प्रकार धर्मोपदेश देना आरम्भ किया: हे भव्य जीवो! सुझजनोंके लिये यति धर्म ही शोघ्र मोक्ष देनेवाला है, किन्तु जो लोग उसकी आराधना करने में असमर्थ हों, उन्हें श्रावक धर्मकी आराधना करनी चाहिये । इस असार संसारमें धर्म ही एक सार रूप है। गृहस्थको शील, तप और क्रियामें अशक होनेपर भी श्रद्धाका अवलम्बन करना चाहिये। अब मैं श्रावक धर्मका विस्तार पूर्वक वर्णन करता हूं। उसे ध्यानसे सुनो। ___ गृहस्थोंका सम्यक्त्व मूल बारह व्रतरूपी धर्म है। इसमें प्रथम धर्मका मूल सम्यक्त्व है। सुदेवमें देव बुद्धि, सुगुरुमें गुरुबुद्धि और सद्धर्ममें धर्मबुद्धि रखनेको सम्यक्त्व कहते हैं। इससे विपरीतको मिथ्यात्व कहते हैं। मिथ्यात्वका त्याग कर सम्यक्त्वके इन पांच अतिचारोंका भो त्याग करना चाहिये। __ शंका-देव, गुरु और धर्ममें शंका रखना अर्थात् यह सत्य है या असत्य आदि सोचना ! आशंका-हरि, हर और सूर्य प्रभृति देवताओंका प्रभाव देख कर उनसे और जिन धर्मसे भी सुखादिक प्राप्त करनेकी इच्छा
SR No.023182
Book TitleParshwanath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Jain Pt
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1929
Total Pages608
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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