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________________ ४१८ * पार्श्वनाथ चरित्र * वह यह समाचार मिला किन्तु किसीने भी उसकी खोज खबर म ली, न कोई वैद्य ही उसके रोगका प्रतिकार करनेके लिये उपस्थित हुआ । इससे कंडरीकको बड़ा ही क्रोध हुआ और सोचने लगा, कि सवेरा होते ही समस्त वैद्यों और मन्त्रियोंको कठोर दण्ड दूंगा, किन्तु उसकी यह इच्छा पूर्ण न हो सकी। क्रोधावस्था में ही रात्रिके समय उसकी मृत्यु हो गयी । और सातवीं नरक भूमिमें नारकी हुआ । वह उधर पुंडरीक राजर्षि साधुधर्म प्राप्त करनेके कारण अपने भाग्य की सराहना कर रहे थे । वह अपने मनमें सोच रहे थे कि अब मैं गुरूके निकट चारित्र अङ्गीकार करूँगा । इसी तरहके विचार करते हुए वे भूख प्यास और धूप आदिकी परवा किये बिना बहुत दूर निकल गये । इस यात्रा के कारण उनके पैरोंसे रक्त बह रहा था और श्रमके कारण वे बहुत ही क्लान्त हो रहे थे । अन्तमें एक गांव मिलनेपर पुंडरीकने उपाश्रयकी याचना की। वहां वे तृणके आसनपर शुभ लेश्यापूर्वक बैठकर अपने मनमें सोचने लगे - “ अहो ! मैं कब गुरुके निकट पहुँच कर अशेष कर्मको दूर करनेवाली यथोचित प्रवज्याको अंगीकार कर उसे निरतिचारपूर्वक पालन करूँगा ?” इसी तरह की बातें सोचते-सोचते वे व्याकुल हो उठ े और मस्तक पर अंजलि जोड़कर स्पष्ट शब्दों में कहने लगे - " अर्हन्त भगवानको नमस्कार है ! धर्माचार्योंका नमस्कार है ! हे नाथ ! मैं बल रहित हूँ अतएव यहां रहने पर भी यह मान कर कि मैं आपके चरणोंके
SR No.023182
Book TitleParshwanath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Jain Pt
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1929
Total Pages608
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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