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________________ ४०० * पार्श्वनाथ चरित्र * 1 हा - "हे राजन् ! हूँ, अतएव मुझे दूसरोंकी ओर देखनेकी को आवश्यकता नहीं है ।" नमिराजाका यह उत्तर सुन इन्द्रने राज प्रासादमें कृत्रिम अग्नि उत्पन्नकर उसे दिखलाते हुए कहा - "हे मुने ! आपका यह महल और अन्तःपुर तो जोरोंसे जल रहा है, इसकी उपेक्षा क्यों कर रहे हैं ?" नमिराजाने कहा - " जलने दीजिये । इनके जलनेसे मेरी कोई हानि नहीं है ।" यह सुन इन्द्रने का, – “ खैर, कमसे कम नगरके चारों ओर मंत्रयुक्त एक किला बनवा दीजिये । इससे आपकी प्रजा सुरक्षित रहेगी। इसके बाद फिर आप संयम ग्रहण कीजिये । राजर्षिने कहा, "हे भद्र ! मेरा नगर है, उसके आस-पास समभाव रूपो किला है ओर जयरूपी मन्त्रोंसे उसकी रक्षा होती है।" यह सुन पुनः शकते लोगोंको रहनेके लिये एक उत्तम प्रासाद बन लीजिये ।” राजाने कहा, मोक्ष नगरमें मेरे लिये प्रासाद तैयार है । अब मुझे अपने लिये या बनवाने की जरूरत नहीं है ।" इन्द्रने कहा,चोरोंका निग्रह कीजिये, तब दीक्षा लीजिये ।” रागादिक ही सबसे बढ़कर चोर हैं। इसलिये पहले ही मैं उनका निग्रह कर चुका हूं।” इन्द्रने कहा, "हे राजर्षि ! पहले उद्धत राजाओंको वश करिये, तब द्रोक्षा लीजिये ।” राजाने कहा, - "अन्यान्य राजाओंको जीतनेका कोई मूल्य नहीं है । कर्मपर विजय प्राप्त करना ही वास्तविक विजय है । मैं इसीके लिये चेष्टा कर रहा हूँ।” इन्द्रने कहा - "गृहस्थाश्रमके समान दूसरा कोई धर्म नहीं निराजाने कहा, - - कर तब दीक्षा एक निश्वल दूसरोंके लिये प्रासाद 66 'पहले अपने नगरके -
SR No.023182
Book TitleParshwanath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Jain Pt
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1929
Total Pages608
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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