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* षष्ठ सगं *
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उसे बहुत ही शुभ समझना चाहिये। किन्तु मुझे ख़याल आता है कि मैंने पहले कभी इस शैलराजको देखा है।" इस तरहकी बातें सोचते-सोचते शुभ अध्यवसायसे राजाको जाति स्मरण ज्ञान उत्पन्न हुआ। उसे अब स्पष्ट रूपसे पूर्व जन्मकी सारी बातें याद आने लगीं। उसे मालूम हो गया कि पूर्व जन्ममें जब मैं मनुष्य था तब चारित्रका पालन कर मैं दसवें प्राणत देवलोकमें देव हुआ था । उस जन्ममें जिनेश्वरके जन्मोत्सवके समय मैं मेरुपर्वतपर गया और उसी समय मैंने उसे देखा था। इस प्रकार नमिराजाको अपने आप ज्ञान उत्पन्न हुआ। फलतः उसने अपने पुत्रको राज्यभार सौंपकर दीक्षा ग्रहण कर ली।
जिस समय नमिराजाने साधुवेषमें नगरसे प्रस्थान किया उस समय नगरकी समस्त प्रजा हाहाकार कर विलाप करने लगी। इसो समय शक्रेन्द्रको नमिराजाकी परीक्षा लेनेकी सूझो अतः वे ब्राह्मण वेषमें नमिराजाके सम्मुख उपस्थित हो कहने लगे"महाराज ! आपने यह जीव दयाका कैसा व्रत धारण किया है ? इधर आपने तो व्रत लिया है और उधर समस्त नगरनिवासी कन्दन कर रहे हैं। इस व्रतसे लोगोंको पीड़ा हो रही है, अतएव इसे अयोग्य समझ कर त्याग कीजिये।"
ब्राह्मणके यह वचन सुन कर मुनिराजने कहा, "हे विप्र! वास्तवमें मेरे व्रतके कारण इन लोगोंको कोई कष्ट नहीं हो रहा है। यह तो अपनी स्वार्थहानि देखकर रो रहे हैं। इस समय तो मैं भी उन्हींको तरह अपना स्वार्थ सिद्ध करने जा रहा