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________________ ૬૮ * पार्श्वनाथ चरित्र * संसारके लोग भी बहुत ही धूर्त होते हैं, तीसरे विदेश यात्रा भी बहुत ही कष्टदायक होती है और फिर सामुद्रिक व्यापार करना तो बड़ाही कठिन काम है, इसलिये हम तुम्हें अनुमति देना उचित नहीं समझते । दुर्भाग्यवश बड़ोंकी यह बात उन युवकोंको अच्छी न लगी । वे अपने विचारमें दृढ़ रहते हुए नौकाओंमें किराना भराकर समुद्र यात्रा की तैयारी करने लगे । चलते समय बुरे शकुन भी हुए किन्तु उसकी भी उन्होंने परवाह न की । इस प्रकार प्रस्थान करनेके बाद तीसरे दिन आकाशमें एकायक बादल घिर आये, घोर गर्जना होने लगी और बिजली चमकने लगी। साथ ही इतने जोरका बवंडर आया, कि नौकायें टूट कर चूर चूर हो गयी और उनमें बैठे हुए सब लोग समुद्र में जा गिरे। कुछ लोग नौकाके काष्ट खण्डोंके सहारे तैरते हुए बाहर निकल आये । इसी तरह चन्द्र भी एक काष्टके सहारे सातवें दिन बाहर आ निकला । अनन्तर वह अपने मन में सोचने लगा- “ अहो ! मेरे सब साथियोंकी न जाने क्या गति हुई होगी ? उन सबोंको मैंने ही आफत में डाला । पिता और स्वजनोंके मना करने पर भी मैंने यह काम किया इसलिये मुझे यह फल मिला । अब मेरा जीना ही बेकार है ? ऐसे जीवन से तो मर जानाही उत्तम है !” यह सोचकर उसने एक वृक्षके सहारे अपने गलेमें फाँसी लगा ली, किन्तु उसकी मृत्यु होनेके पूर्वही वहां एक ब्राह्मण आ पहुंचा और उसी समय उसने छुरीसे पाशको काट कर उसे नीचे उतारनेके बाद कहा
SR No.023182
Book TitleParshwanath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Jain Pt
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1929
Total Pages608
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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