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________________ ३६० * पार्श्वनाथ चरित्र * समझाया और मना भी किया। मुझे बारम्बार उपदेश दिये, किन्तु मैं किसी प्रकार उस दुर्व्यसनको न छोड़ सका अतः अन्यान्य लोग भी शिक्षा देते हुए मुझसे कहने लगे, कि उत्तम और कुलीन पुषोंको जुआ कभी न खेलना चाहिये। यह ठीक है कि लोग ईर्ष्या करनेमें कुशल होते हैं, किन्तु तुझे यह ख़याल नहीं करना क्योंकि जब गधा दूसरेके अंगूर खाता है, तब अपनो हानि न होने पर भी, पड़ोसी लोगोंको उसका अनुचित कार्य देख कर दुःख होता है। ___ अस्तु । मेरे कुलक्षण देख, पिताने पैतृक सम्पत्ति परसे मेरा अधिकार उठाकर मुझे घरसे निकाल दिया। किसीने ठोक ही कहा है कि उत्तम होनेपर शत्रुका भी आदर किया जाता है, औषधी कटु होनेपर भी वह गुणकारी होनेसे ग्रहण की जाती है ; किन्तु प्यारा पुत्र होनेपर भी वह यदि दुष्ट होतो सर्पके काटे हुए अंगूठेकी भांति उसका त्याग किया जाता है। हे राजन ! इस प्रकार पिताने जबसे निकाल दिया तबसे मैं स्वतन्त्र होकर चारों ओर भटकता हूँ, चोरी करता हूं, जुआ खेलता हूं, घर घर भीख मांगता हूँ और किसी शुन्य मन्दिर में सो रहता हूँ। आज रात्रिके समय जब मैं चोरी कर रहा था तो आपके इन सेवकोंने मुझे देख लिया और ये मुझे यहां बांधकर ले आये। हे राजेन्द्र ! यही मेरा सच्चा वृत्तान्त है। अब आपको जो ठीक लगे, वह करें। वसन्तककी यह बातें सुनकर राजाको बड़ी दया आयी पर;
SR No.023182
Book TitleParshwanath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Jain Pt
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1929
Total Pages608
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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