________________
पार्श्वनाथ-चरित्र *
वह कर्म उदय हुआ और इसी कारणसे मुझे एक अक्षर भी न आता था। किसीने ठीक ही कहा है कि "हंसते-हंसते भी जो कर्म गले बंध जाता है, वह रोते-रोते भी नहीं छूटता । इसलिये जीवको कर्म न बांधना चाहिये।” इस प्रकार केवली भगवानके उपदेशसे बहुत लोगोंको प्रतिबोध प्राप्त हुआ। अनन्तर केवली भगवान धर्मोपदेश देते हुए दीर्घकाल तक इस संसारमें विचरण करते रहे । अन्तमें उन्होंने शत्रुजय तीर्थपर सिद्धपद प्राप्त किया। इस दृष्टान्तसे यह शिक्षा ग्रहण करनी चाहिये, कि ज्ञान प्राप्त करनेके बाद जलमें गिरे हुए तैल-बिन्दुकी भांति सर्वत्र उसका विस्तार करना चाहिये। ___ अब हमलोग अभयदानके सम्बन्धमें विचार करेंगे। अभय. दान अर्थात् जो जीव दुःख भोग रहे हों या मर रहे हों उनकी रक्षा करना । त्रिभुवनके ऐश्वर्यका दान भी अभयदानकी समता नहीं कर सकता। भयतीत प्राणियोंको अभय देने या भयमुक्त करनेका नाम भी अभयदान ही है। किसीने अभयदानकी प्रशंसा करते हुए ठीक ही कहा है कि सुवर्ण, गाय और भूमिके दान देनेवाले इस संसारमें बहुत मिल सकते हैं ; किन्तु प्राणियोंको अभयदान देनेवाले पुरुषोंका मिलना दुर्लभ है। इस सम्बन्धमें वसन्तकका दृष्टान्त मनन करने योग्य है । वह इस प्रकार है :