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________________ ३५६ * पाश्र्वनाथ-चरित्र # मूर्ख रहना ही उत्तम है । किसीने कहा भी है, – “हे सखे ! मुझे मूर्खता ही पसन्द है, क्योंकि उसमें आठ गुण है । मूर्ख मनुष्य निश्चिन्त, बहुत भोजन करनेवाला, लज्जारहित, रातदिन सोनेवाला, कार्याकार्यका विचार करनेमें अंध और बधिर, मानापमान में समान, बहुधा राग रहित और शरीरसे सुदृढ़ होता है । अहो ! मूर्ख मनुष्य आनन्दपूर्वक जीवन व्यतीत करते हैं। मैं अधिक पढ़ा हूं, इसीलिये लोग नानाप्रकारके प्रश्न पूछकर मुझे तंग किया करता हैं ।" इस प्रकार के दुर्ध्यान से आचार्य विजयसुरिने ज्ञानावरणीय कर्मका बन्ध किया और इस कर्मको क्षय किये बिना ही वे मृत्युको प्राप्त कर सौधर्म देवलोकमें देव हुए । अनन्तर आयु पूर्ण होनेपर वहांसे च्युत होकर पद्मपुर में वे धन ष्टीके पुत्र रुपमें उत्पन्न हुए। वहां उनका नाम जयदेव रखा गया। जब वह विद्याध्ययन करनेके योग्य हुआ तब उसे पाठशालामें पढ़ानेके लिये भेज दिया । किन्तु पण्डित पढ़ाते-पढ़ाते थक गये, फिर भी जयदेवको एक अक्षर न आया । यह देखकर उसके पिताको बड़ी चिन्ता हुई । वह सोचने लगा, – “पुत्रोंका न होना और मर जाना ही अच्छा है, क्योंकि उससे पुरुषको थोड़ा ही दुःख होता है, किन्तु मूर्ख पुत्र होना अच्छा नहीं; क्योंकि उसके रहते निरन्तर जीजला करता है। 1 उसने जयदेवको पढ़ानेके लिये अनेक मिन्नतें मानीं और अनेक प्रकारसे औषधोपचार भी कराये; किन्तु उससे कुछ भी फल न हुआ । यथा समय उसे यौवन प्राप्त हुआ और वह भली बुरी
SR No.023182
Book TitleParshwanath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Jain Pt
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1929
Total Pages608
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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