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________________ * षष्ठ सर्ग * ३५१ नामक चार स्त्रियां थी । एक बार गृहकार्यमें नियुक्त करनेके विचारसे दत्तने अपनी चारों पुत्रवधुओंके सम्बन्धियोंको इकट्ठा किया और भक्तिपूर्वक भोजनादिसे उनका सत्कार कर उन्हें यथोचित स्थान पर बैठाया । इसके बाद उसने क्रमशः एक-एक बहूकों बुलाकर उन्हें ब्रीहिके पांच-पांच दाने दिये और कहा- कि “इन पांच दानोंको सम्हालकर रखना और जब मैं मांगूं तब मुझे देना ।" इतनी प्रक्रिया करनेके बाद उसने सबको सम्मानपूर्वक विदा किया । दाने मिलनेपर बड़ी बहु मनमें कहने लगी- “ मालूम होता है कि बुढ़ापे के कारण मेरे ससुरजीकी बुद्धि मारी गयी है । अन्यथा वह सबके सामने मुझे यह पांच दाने क्यों देते ? अतएव इन्हें लेकर मुझे क्या करना है ? यह सोचते हुए उसने तुरत उन दानोंको बाहर फेंक दिया। इसके बाद दूसरी बहूने विचार किया कि इन दानों को मैं क्या करू और कहां रखूं ? यह विचार कर वह उन्हें खा गयी । तीसरी बहुने विचार किया कि बूढ़े ससुरजीने इतने आडम्बरसे स्वजनोंके सम्मुख यह दाने दिये हैं, तो इसमें अवश्य कोई कारण होना चाहिये । यह सोच कर उसने उन्हें एक अच्छे कपड़ेमें बांध कर यत्न पूर्वक बकसमें रख दिया और उनकी रक्षा करने लगी। सबसे छोटी बहू रोहिणोने वे दाने अपने भाइयोंको दे दिये और उन्हें खेतमें बुवा कर उत्तरोत्तर उनकी संख्या में वृद्धि करने लगी । इसके बाद पांचवे वर्ष दत्तने विचार किया कि बहुओंको
SR No.023182
Book TitleParshwanath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Jain Pt
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1929
Total Pages608
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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