SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 396
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ * षष्ठ सर्ग * ३४६ बुद्धिसे उसने मुनीश्वरको तीन प्रदक्षिणा देकर वन्दन किया अनन्तर मुनिने धर्मलाभ रूपी अशोर्वाद दे उसे इस प्रकार धर्मोपदेश देना आरम्भ किया : 1 हे महानुभाव ! आर्यदेश, उत्तमकुशल, रूप, बल, आयु और बुद्धि आदिले युक्त मानव-देहको प्राप्त कर जो मूर्ख धर्म नहीं करता, वह मानो समुद्रमें रहकर नावका त्याग करता है । मोहरूपी रात्रि से व्याकुल प्राणियोंके लिये धर्म, दिनोंदय के समान और सूखते हुए सुख-वृक्षके लिये मेघके समान है । सम्यक् प्रकारसे उसकी आराधना करनेपर वह भव्यजनोंको सुखसम्पत्ति देता है । और दुर्गतिमें फँसे हुए प्राणियोंको बचाकर अनेकों दुःखसे मुक्त करता है । बन्धुरहित मनुष्योंके लिये वह बन्धु समान, मित्र रहितके लिये मित्र समान, अनाथका नाथ और संसारके लिये एक वत्सल रूप है । जीव दयामय इस सम्यग् धर्मको भगवानने गृहस्थ और यति दो रूपमें बतलाया है । हे भद्र ! यथाशक्ति उस धर्मका तू आश्रय ग्रहण कर । " मुनिराज के इस उपदेशसे विजयकुमारके मोहान्धकारका नाश हो उसे सद्धर्मकी प्राप्ती हुई और उसी समय उसने उनसे यति दीक्षा ग्रहण कर ली। इस अवसर पर मुनीने उसे इस प्रकार धर्मोपदेश दिया :- " हे विजयराजर्षि ! तू एकाग्र चित्तसे हित शिक्षा श्रवण कर । हे मुने ! राग द्वेषादि शत्रुओंपर जिनेश्वरने बलपूर्वक विजय प्राप्त की है, उन शत्रुओंको पोषण करने वालों पर जिनेश्वर कैसे प्रसन्न रह सकते हैं ? इसलिये तुझे रागद्वेषादि
SR No.023182
Book TitleParshwanath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Jain Pt
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1929
Total Pages608
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy