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________________ * पञ्चम सर्ग * m लेना चाहिये।" यह सुन पार्श्वकुमारने कहा-“पिताजी! अब मैं व्याह नहीं करना चाहता, क्योंकि यह संसार सागर दुस्तर है। संसारमें भ्रमण करते हुए इस जीवने अनेक बार व्याह किये हैं। अब तो मैं इस संसारका उन्मूलन करना चाहता हूँ। फिर स्त्री तो इस संसार रूपी वृक्षका मूल है। इसलिये मुझे इस संसारकी स्थितिके साथ कुछ भी प्रयोजन नहीं है।” पुत्रकी यह बात सुनकर राजा अश्वसेनने कहा-“हे वत्स! तेरी इच्छा न होनेपर भी तुझे एक बार व्याह कर मेरा मनोरथ पूर्ण करना ही होगा। पहलेके तीर्थकरोंने भी एक बार संसार-सुख भोग कर, बादको दीक्षा ग्रहण की थी। इस लिये तुझे भी उन्हींका अनुसरण करना चाहिये।" यह सुन पार्श्वकुमारने पिताके वचनको अलंघनीय मानकर उनकी बात मानली । जब यह समाचार चारों ओर फैल गया तो सबको बड़ी प्रसन्नता हुई। उसी दिनसे सब लोगोंने विवाहोत्सव मनाना आरम्भ कर दिया। जहां देखो वहीं गीत गान, नाटक, वाद्य, मांगल्य, दान और भोजन प्रभृति मांगलिक कार्य होने लगे। विवाहके दिन सुमुहूर्तमें कुल वधुओंने प्रभावतीको स्वर्णकुम्भके जलसे स्नान कराया और गुरूप्रदत्त अक्षत उसके सिरपर छोड़ कर, उसे विवध वस्त्राभूषणोंसे अलंकृत किया। इधर पार्श्वकुमार के मित्रोंने उनको सुन्दर आभूषण और वस्त्रोंसे सजाकर बड़ो सज-धजके साथ सुफेद हाथीपर बैठाये। इसके बाद छत्र-चामर आदि राज चिन्होंसे अलंकृतकर विविध वाद्योंकी गगनभेदिके
SR No.023182
Book TitleParshwanath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Jain Pt
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1929
Total Pages608
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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