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* पार्श्वनाथ चरित्र
धर्मकृत्य में मैं स्नात
" देवताओंके नतमस्तक रूपो भ्रमरोंके संगसे मनोहर चरण कमलवाले, अश्वसेन नृपके पुत्र और लक्ष्मी के निधान हे स्वामिन्! आपकी जय हो ! हे जिनेन्द्र ! आपके दर्शन से मेरा शरीर सफल हुआ, नेत्र निर्मल हुए और हुआ । हे नाथ! आपके दर्शनसे मेरा जन्म सफल हुआ । और इस भवसागर से मैं उत्तोर्ण हुआ । है जिनेन्द्र | आपके दर्शनसे मैं सुकृता हुआ मेरे अशेष दुष्कृतका नाश हुआ । और मैं भुवनत्रयमें पूज्य हुआ । हे देव ! आपके दर्शनसे कषाय सहित मेरे कर्मका जाल नष्ट हो गया और दुर्गातिसे मैं निवृत्त हुआ | आपके दर्शनसे आज यह मेरी देह और मेरा बल सफल हुआ और सारे विघ्न नष्ट हुए। हे जिनेश ! आपके दर्शनसे कर्मों का दुःखायक महाबन्ध नष्ट हुआ और सुखसंग उत्पन्न हुआ । आज आपके दर्शनसे मिथ्या अंधकारको दूर करनेवाले ज्ञानसूर्यका मेरे हृदय में उदय हुआ । हे प्रभो ! आपके स्तवन, दर्शन और ध्यान से आज मेरे हृदय, नेत्र और मन निर्मल हुए, । इसलिये हे वीतराग ! आपको बारम्बार नमस्कार है !"
इस प्रकार जगत् प्रभुको स्तुतिकर इन्द्र देवता उन्हें वामादेव के पास वापस ले आये और पूर्ववत् माताके पास में उन्हें सुला दिया । इसके बाद उन्होंने अवस्वापिनो निद्रा और प्रतिरूपक हरण कर प्रभुके मनो विनोदके लिये उनको शय्यापर उन्होंने रत्नमय गेंद, दो कुण्डल और सुशोभित वस्त्र रख दिये । अनन्तर शक्रके आदेशसे इसी समय कुबेरने वहां बत्तीस करोड़ द्रव्य और रत्नोंकी