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________________ २८५ * चतुर्थ सर्ग * ___ अर्थात्-“अतिवृष्टि, अनावृष्टि, मूषक, तीड़, शुक, स्वचक्र और परचक्र यह सात ईतियां कहलाती हैं। इनका उपद्रव बढ़ने पर खेती नष्ट हो जाती है और देशमें भयंकर दुष्काल पड़ जाता हं । किन्तु सुवर्णबाहुके राज्य में ऐसा कभी न होता था। इसी लिये उसको प्रजा सुखी रहती थी। उसके राज्यमें सब लोग आनन्दपूर्वक रहते थे। ___ एक बार वसन्त ऋतु आनेपर अनेक वृक्ष विकसित होने लगे। इलायची, लवंग, कपूर और सुपाड़ी प्रभृति वृक्षोंमें नवपल्लव आनेके कारण इनकी शोभा देखते हो बनती थी। द्राक्ष और वसन्ती प्रभृति लतायें अपने पत्तोंसे मानों नृत्य कर रही थी। मालती, यूथिका, मल्ली, केतको, माधषो और चम्पकलता प्रभृति लतायें फूलोंसे लदो हुई ऐसो सुन्दर मालूम होती थीं, कि उन्हें देखते ही बनता था । चारों ओर इस समय वसन्तको अपूर्व छटा छायी हुई थी। यह देखकर वनपालने राजसभामें आकर राजाको सूचना दी कि-“हे राजन् ! वनमें इस समय चारों ओर वसन्त ऋतु विलास कर रही है। अतएव वसन्त कोड़ा करने के लिये यही उपयुक्त अवसर है।" __ वनपालको यह सूचना मिलते ही राजाने सपरिवार वसन्त विलासके लिये वनकी ओर प्रस्थान किया और वहां पहुंच कर नाना प्रकारकी क्रीड़ाओंमें अपना समय बिताने लगा। कभी वह कदली गृहके अन्दर क्रीडा करता और कभी वह माधवी मण्डपमें क्रीड़ा करता और कभी वह अश्वक्रीड़ा करता और कभी हस्ती
SR No.023182
Book TitleParshwanath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Jain Pt
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1929
Total Pages608
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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