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________________ * तृतोय सग. २०० तत्वश्रद्धान अर्थात् जिनेश्वर कथित सुतत्वोंपर दृढ़ प्रतीति-इन लोकोत्तर गुणोंसे लोकोत्तर सुखोंकी प्राप्ति होती है। अधिक भोजन, अति परिश्रम, अति प्रजल्प (बहुत बोलना) नियम न लेना, लोगोंकी अत्यन्त संगति और दीनता-यह छः बात योगियोंके लिये वर्जनीय मानी गयी है। इसके साथ यह भी जान रखना आवश्यक है, कि योगी होना क्रियासे ही संभव है, बातोंसे नहीं। क्रिया रहित स्वेच्छाचारसे चारित्र नष्ट हो जाता है। धर्मानुरागी मनुष्य चाहे जिस स्थानमें रहकर धर्मकी उपासना कर सकता है। क्योंकि धर्म सभी प्राणियोंपर समान भाव रखता है। जाति किंवा किसी अन्य भेदके कारण उसके भावमें कोई अन्तर नहीं पड़ता।” इस प्रकार थर्मोपदेश श्रवण करनेके बाद कुबेरने गुरुदेव से फिरसे प्रश्न किया- "हे भगवन् ! देव, गुरु और धर्म किसे कहना चाहिये ?" गुरुने कहा-हे महाभाग! सुन :___ रागद्वषसे रहित, मोह महामलुका नाश करनेवाले, केवल ज्ञान और केवल दर्शन युक्त, देव और दानवोंके पूज्य, सद्भूतार्थके उपदेशक और समस्त कर्मोंका क्षयकर परम पदको प्राप्त करनेवाले वीतराग भगवानको देव कहते हैं। धूप, पुष्प और अक्षतादिकसे इनकी द्रव्य पूजा करनी चाहिये और उनके बिम्बकी पूजामें भी यथा शक्ति द्रव्य खर्च करना चाहिये। सर्वशकी भावपूजा व्रतके आराधन रूप कही गयी है। उसके देशविरति और सर्वविरति नामक दो भेद हैं। एक देशसे जीव हिंसादिके निषेधको देश विरति और सर्वथा निषेधको सर्वविरति कहते हैं।
SR No.023182
Book TitleParshwanath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Jain Pt
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1929
Total Pages608
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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