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________________ * तृतीय सर्ग * स्नानं मनोमल त्यागो, दानं चाभयदक्षिणा । ज्ञानं तत्त्वार्थ संबोधो, ध्यानं मिविषयं मनः । " अर्थात् - " अहिंसाके समान कोई धर्म नहीं है, सन्तोषके समान व्रत नहीं है, सत्यके समान शौच ( पवित्रता ) नहीं है और शीलके समान भूषण नहीं है । सत्य प्रथम शोच है, तप दूसरा शौच है, इन्द्रिय निग्रह तीसरा शौच है, प्राणीमात्रपर दया करना चौथा शौच है, और जल शौच पांचवां शौच है । अर्थात् जल शौचको उपेक्षा पूर्वोक चार शौच अधिक अच्छे, अधिक आवश्यक और अधिक महत्वपूर्ण हैं । मनके मलका त्याग ही स्नान है, अभय दान ही सच्चा दान है, तत्वार्थ बोध हो ज्ञान है और विकार रहित मन ही ध्यान है । २४७ घरमें रहनेवाले और जित्य स्नान न करनेवाले मनुष्य बिना तपके केवल मनः शुद्धिसे भी शुद्ध होते हैं । कहा है कि “ मनएव मनुष्याणां कारणं बंधमोक्षयोः " अर्थात् मनही मनुष्यके बन्धन और मोक्षका कारण है ।" पुरुष जिस तरह स्त्रोको आलिङ्गन करता है, उसी तरह पुत्रोको भो आलिङ्गन करता है, किन्तु दोनों अवस्थाओं में उसकी मनःस्थितिमें जमीन आसमान जितना अन्तर होता है । समतका अवलम्बन कर पुरुष क्षणमात्रमें जितने कर्मोंका क्षय कर सकता है, उतने कर्मों का क्षय कोटि जन्म पर्यन्त तप करनेपर भी नहीं कर सकता । धर्मका मूल विनय और विवेक है । कहा भी है कि विनय हो धर्मका मूल हैं । तप और संयम विनयपर ही निर्भर करते हैं । जिसमें विनय नहीं उसके
SR No.023182
Book TitleParshwanath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Jain Pt
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1929
Total Pages608
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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