SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 279
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ AnyY * पार्श्वनाथ-चरित्र * हों, अधर्महीकी प्रशंसा करते हों, अधर्मशील हों, अधर्माचरण करते हों और अधर्मसे ही अपनी जीविका उपार्जन करते हों, ऐसे जीवोंका सोते रहना अच्छा होता है । किन्तु जो जीव धर्मी हों, धर्मप्रिय हों, सदा धर्महीसे अपनो जीविका उपार्जन करते हों, ऐसे जीवोंका जागते रहना अच्छा है। क्योंकि ऐसे जीव अपने और पराये सभी प्राणियोंको धर्ममें लगाते हैं और स्वयं भी सदा धर्माचरण ही करते हैं । विवेकी प्राणियोंको इस प्रकार समझकर प्रमादाचरणका सर्वथा त्याग करना चाहिये। इसके अतिरिक्त जो काम करनेसे भारम्भ बढ़े उसका भी त्याग करना चाहिये। ऊखलके साथ मूशल, हलके साथ फाल, धनुषके साथ बाण, सिलके साथ बट्टा, कुल्हाड़ीके साथ दंड, चक्रोके साथ उसका ऊपरी पत्थर प्रभृति पापोपकरण त्याज्य और दुर्गतिदायक हैं, इसलिये इन्हें मिलाकर न रखना चाहिये-ज्योंहीं काम हो जाय, त्योंही इन्हें अलग करके रख देना चाहिये। विवेको पुरुषको एकेन्द्रिय, द्वि इन्द्रिय, त्रि इन्द्रिय, चार इन्द्रिय और पंचेन्द्रिय जीवोंका वध भी न करना चाहिये। इनका वध करनेसे नरककी प्राप्ति होती है। काल नामक एक कसाई रोज पांच सौ भैंसोंका वध करता था, इसी लिये वह नरकगामी हुआ था। कहा भी है कि : "नास्त्यहिंसासमो धर्मों, न संतोषसमं प्रतम् । न सत्यसदृशं शौचं, शोलतुल्यं न मंडनम् ॥" सत्यं शौचं तपः शौच, शौचमिंद्रियनिग्रहः । सर्वभूतदया शौचं, जल शौचं तु पंचमम् ।
SR No.023182
Book TitleParshwanath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Jain Pt
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1929
Total Pages608
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy