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* तृतीय सर्ग **
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एक सदमित्रके नाते वह चेष्टा न करता तो शायद ही यह लोग इस तरह सन्मार्गपर आते । शास्त्रमें कहा है कि :
"पापान्निवारयति योजयेत हिताय ।
गुह्यं च गूहति गुणान् प्रकटी करोति ॥ आपद्गतं च न जहाति ददाति काले ।
सन्मित्र लक्षणमिदं प्रवदंति संतः ॥” अर्थात् -- "पापसे रोकना, हितमें लगाना, गुह्यको गुप्त रखना, गुणों को प्रकट करना, विपत्ति में दूर न भागना और आवश्यकता पड़ने पर सहायता करना यह सन्मित्रका लक्षण है।” भद्रकने भी इस समय पूर्णरूपसे इस मित्र धर्मका पालन किया था ।
किन्तु श्रीपुंज और श्रीधरके माता पिता बड़े ही दुराग्रही थे । दोनों भाइयोंकी यह प्रतिज्ञा उन्हें अच्छी न लगी, इसलिये उन्होंने दोनों भाइयोंको भोजन देना ही बन्द कर दिया। तीन दिन बीत गये किन्तु अपने पुत्रोंको निराहार देखकर भी उन्हें दया न आयो । इधर श्रीपुंज और श्रीधर इस बातपर डटे हुए थे, कि प्राण भले ही चला जाय, किन्तु इस : बार यह प्रतिज्ञा भंग न करेंगे। तीसरे दिन रात्रिको जब यह बात भद्रकको मालूम हुई, तब उसने इस प्रतिज्ञाकी महिमा बढानेके लिये राजाके पेटमें भयंकर पीड़ा उत्पन्न कर दी । ज्यों ज्यों वैद्य उसका उपचार करते थे, त्यों त्यों पोड़ा पढ़ती जाती थी । अन्तमें मन्त्रो किंकर्तव्य विमूढ़ हो गये और नगर में हाहाकार मच गया। इसी समय आकाशवाणी हुई कि "राजाके पेटकी यह वेदना किसी तरह आराम नहीं हो सकती ।