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________________ * तृतीय सगे* ર चाहिये, नहीं तो इसमें भी त्रस जीवोंकी हिंसाका दोष लगता है। खासकर सुबह और शामको रात्रि प्रत्यासन्न होनेपर-सूर्योदय होनेके दो घड़ी बाद और सूर्यास्त होनेके दो घड़ी पूर्व भोजन करना चाहिये। कहा भी है कि दिवसके आरम्भ और अन्तकी दो दो घड़ियां त्याग कर जो भोजन करता है,वह पुण्यका भागो होता है। आगममें भो सर्व जघन्य पञ्चखाण मुहूर्त प्रमाण नमस्कार सहित बतलाया है। यदि कार्यकी व्यग्रता आदिके कारण वैसा न हो सके, तब भी धूप आदि देखकर सूर्यके उदय और अस्तका निर्णय अवश्य कर लेना चाहिये। ऐसा न करनेसे रात्रि भोजनका दोष लगता है। लजाके कारण अन्धकारयुक्त स्थानमें दीपक लगाकर भोजन करनेसे त्रस जीवोंकी हिंसाके साथ नियम का भंग और माया मृषवाद प्रभृति अनेक दोष लगते हैं क्योंकि 'मैं यह पाप न करूंगा' यह कह कर फिर वही पाप करना, मृषावाद और माया नहीं तो और क्या है ? जो प्राणि पाप कर अपनी आत्माको पवित्र मानते हैं, उन्हें दूना पाप लगता है। यह बालजोवोंकी अज्ञानताका लक्षण है। रात्रि भोजनके नियमकी आराधना और विराधनाके सम्बन्धमें तीन मित्रोंका दृष्टान्त मनन करने योग्य है। वह इस प्रकार है : देवपल्ली नामक ग्राममें श्रावक, भद्रक और मिथ्यादष्टि नामक तीन वणिक मित्र रहते थे। एक बार वे किसी जैनाचार्यके पास गये। आचार्य महाराजने उन्हें रात्रि भोजनके नियमका उपदेश
SR No.023182
Book TitleParshwanath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Jain Pt
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1929
Total Pages608
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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