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________________ * तृतीय सर्ग. २२१ क्रमशः कुछ ही दिनोंमें वे सब लोग कुशलपूर्वक अपने घर आ पहुंचे और पिताको प्रणाम कर अपना कुशल समाचार सुनाया। भोजनादिसे निवृत्त होनेके बाद पिताने तीनों पुत्रोंको एकान्त में बुलाकर उनसे अपना अपना हाल कहनेको कहा। सर्व प्रथम धनदेवने अपनी यात्राका आद्योपान्त हाल कह सुनाया और अन्तमें तीनों रत्न और विपुल सम्पत्ति पिताको देते हुए कहा-“यह तीनों रत्न हैं और यह व्यापारमें लाभ हुआ है। इसके बाद धनमित्रने तीनों रत्न देते हुए कहा-“मैंने इन रत्नोंको व्याजपर दे दिया था। मुझे इनका जो कुछ व्याज मिला, उससे मैंने अपना खर्च चलाया है। अब मेरे पास कुछ रुपये बचे हुए हैं वह मैं आपको देता हूं।” यह कह धन मित्रने बचे हुए रुपये भी पिता. को दे दिये। इसके बाद धनपालकी बारी आयी। उसने लज्जित हो कहा-"पिताजी! मैंने तो प्रमादमें पड़कर तीनों रत्न खो दिये। और मैं इस प्रकार कंगाल हो गया, कि कहीं भोजन और वस्त्रका भी ठिकाना न रहा । अन्तमें मुझे उदरनिर्वाहके लिये मजूरी करनी पड़ी और किसी तरह दुःख पूर्वक मैंने इतने दिन पूरे किये। यद्यपि मेरा यह अपराध अक्षम्य है, तथापि मुझे आशा है कि आप मेरी इस नादानीके लिये अवश्य ही क्षमा करेंगे।" ___ इस प्रकार तीनों पुत्रकी बात सुन, धन्य सेठने उसी दिन ज्येष्ठ पुत्रको सबके सामने सारी सम्पत्ति सौंप दी और उसे घरका मालिक बनाते हुए सबको उसकी आज्ञानुसार चलनेका आदेश दिया। इसके बाद दूसरे पुत्र धनमित्रको किराना प्रभृति व्यापारकी
SR No.023182
Book TitleParshwanath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Jain Pt
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1929
Total Pages608
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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