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________________ २१४ # पार्श्वनाथ चरित्र छेदसे वह सांप भी बाहर निकल गया । इसलिये हे मित्रो ! धनके लिये व्यर्थ हाय हाय न कर निश्चिन्त होकर बैठे रहो । हानि और लाभका एक मात्र कारण भाग्य ही है। विधाताने जितने धनका प्राप्त होना भाग्य में लिखा होगा, उतना मरु भूमिमें भी जाने पर मिलेगा, किन्तु उससे अधिक मेरु पर्वतपर भी जानेले न मिलेगा । इसलिये हे बन्धु ! धैर्य धारण करो और वृथा कृपण स्वभाव न रखो क्योंकि घड़ा चाहे समुद्रमें डुबोया जाये, चाहे कूपमें, उसमें समान ही जल आता है । निरुद्यमी लोग यही बात सोच कर उद्योगसे विमुख हो भाग्य भरोसे बैठ रहते हैं । इस प्रकार दो भाई तो ठिकाने लग गये। तीसरा भाई धनपाल भोजन कर आलस्य के कारण वहीं उद्यान में सो रहा। सोनेके बाद शामके वक्त उसने नगरमें प्रवेश किया। नगर में प्रवेश करते ही मुख्यद्वारके पास उसे एक रूपवतो वेश्या दिखायी दी। उस वेश्याके साथ अनेक नट-विट थे। किसीने उसका हाथ पकड़ रखा था, कोई उसे ताम्बूल देता था और कोई उसका मनोरञ्जन कर रहा था । यह देख, धनपाल वेश्यापर आशिक हो गया । वेश्याके मनुष्य उसे देखते ही ताड़ गये कि इसपर बड़ी आसानीसे हमारा रंग चढ़ सकेगा । अतः एक लम्पट पुरुषने उसे लक्ष्य कर कहा - " हे परदेशी पुरुष ! तू कहां जा रहा है । जीवन का वास्तविक आनन्द उपभोग करना हो तो हमारे साथ चल !” उसकी यह बात सुनते ही धनपाल उसके साथ हो लिया और उसी समय वेश्या के घरमें जा पहुँचा । वहां नाच मुजरा देखने में
SR No.023182
Book TitleParshwanath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Jain Pt
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1929
Total Pages608
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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