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________________ २१० * पाश्वनाथ-चरित्र * अपने छोटे भाइयोंसे कहा-“मैं नगरके बाहर तुम लोगोंकी राह देखंगा। तुमलोग शीघ्र ही मुझे वहां आ मिलना ।" दोनों भाइयों से यह कह, पिताको प्रणाम कर धनदेवने विदेशके लिये प्रस्थान किया । दूसरा भाई धनमित्र भी शीघ्र हो उसके पीछे घरसे निकल पड़ा और धनदेवको जा मिला; किन्तु तीसरे भाई धनपालके कानमें अभी जूतक न रँगी थी। उसने धीरे धीरे भोजन किया। भोजनके बाद कुछ समय तक विश्राम किया और फिर घरसे बाहर निकला। खैर, नगरके बाहर तीनों भाई इकठे हुए और वहांसे एक ओरकी राह लो। चलते-चलते बहुत दिनोंके बाद वे सिंहलद्वीपके कुसुमपुर नामक नगरके समीप जा पहुँचे। वहां नगरके बाहर एक उद्यानमें डेरा डालकर वे विचार करने लगे, कि हमलोगोंको अब यहीं व्यापार करना चाहिये और दूर जानेसे लाभ ही क्या हो सकता है, क्योंकि : "प्राप्तव्यमथ लभते मनुष्यो, देवोपि तं लंघयितुं न शक्तः । तस्मान्न शोको न च विस्मयो मे, यदस्मदोयं नहि तत्परेषाम् ॥' अर्थात्-“मनुष्यको जो धन मिलनेका है, वह उसे अवश्य ही मिलेगा। इसमें देव भी बाधा नहीं दे सकते। इसीलिये मुझे शोक या विस्मय नहीं होता, क्योंकि जो मेरा है, उसपर किसी दूसरेका अधिकार नहीं हो सकता।" ___स्नानादिसे निवृत्त होनेके बाद धनदेव शीघ्र ही नगरमें गया। वहां उसने देखा कि चौराहेपर बहुतसे व्यापारी नौकामें आयी हुई कोई वस्तु खरीद कर रहे हैं। यह देख, धनदेव वहां खड़ा हो
SR No.023182
Book TitleParshwanath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Jain Pt
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1929
Total Pages608
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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