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________________ * तृतीय सर्ग * २०३ है। जो दानशील, अल्प कषायी और सरल प्रकृतिके होते हैं, उन्हें मनुष्य आयु बँधती है। यह भी कहा है कि-शोल और संयम रहित होनेपर भी स्वभावसे जो अल्पकषायी और दानशोल होते हैं, वह मध्यम गुणोंके कारण मनुष्य आयु बँधते हैं। बहुत कपटी, शठ, कुमार्गगामी, हृदयमें पाप रखकर बाहरसे क्षमा प्रार्थना करनेवालोंको तिर्यंच आयु बँधती है। इसके अतिरिक्त उन्मार्गमें चलनेवाला, मार्गका नाश करनेवाला, मायावी, शठ, और सशल्य तिर्यंच आयु बाँधता है।" महा आरम्भी, बहु परिग्रही, मांसा. हारी, पंचेन्द्रियका वध करनेवाला, और आते एवम् रौद्र ध्यान करनेवाला जीव नरक-आयु बाँधता है। इसी तरह मिथ्या दृष्टि, कुशील, महा आरम्भ करनेवाला, जियादा परिग्रह रखनेवाला, पापी और क्रूर परिणामी जीव नरकायु बाँधता है। ___ सामयिक, पौषध, प्रतिक्रमण, व्याख्यान और जिन-पूजामें जो विघ्न करता है उसे अन्तराय कर्मोंका बन्ध होता है। कहा है कि हिंसादिकमें आसक्त, दान और जिन पूजामें विघ्न करनेवाला जीव अभिष्टार्थको रोकनेवाला अन्तराय कर्म बांधता है। ___ ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय और अन्तराय-इन चार कर्मोंकी तीस तीस कोड़ा कोड़ी सागरोपमकी स्थिति है। मोहनीय कर्मका उत्कृष्ट स्थितिकाल सत्तर कोडाकोड़ी सागरोपमका है। नाम कर्म और गोत्र कर्म इन दोनोंका उत्कृष्ट स्थितिकाल बीस कोडाकोड़ी सागरोपमका है। आयु कर्मकी स्थिति तैतीस सागरोपमको है । वेदनीय कर्मको जघन्य स्थिति
SR No.023182
Book TitleParshwanath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Jain Pt
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1929
Total Pages608
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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