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* पार्श्वनाथ चरित्र *
देवकी - देवी हुई । कमठ और मरुभूति अपने माता-पिताकी प्रेतक्रिया सम्पूर्ण कर अपनी घर-गृहस्थीको चिन्तामें पड़ गये । कुछ दिन बाद वे लोग शोक- रहित होकर अपना घर सम्हालने लगे और मरुभूति राजाकी पुरोहिताई करने लगा ।
एक दिन श्रेष्ठ प्रशमामृतसे सींचे हुए चारों प्रकारके ज्ञानको धारण करनेवाले हरिश्चन्द्र नामके आचार्य भव्य जनोंको प्रतिबोध देते हुए पोतनपुर के निकटवाले उपवनमें पधारे। मुनीश्वरके आगमनका समाचार श्रवणकर नगर निवासी जन अपनी आत्म को धन्य मानते हुए उनकी वन्दना करने गये । उस समय राजा, तथा कमठ और मरुभूति आदि सभी राजवर्ग उनकी वन्दना करनेके लिये आये और वन्दना करके यथा स्थान बैठ गये । मुनीश्वरने अपने ज्ञानके प्रभावसे मरुभूतिको भावी पार्श्वनाथका जीव जानकर विशेष रूपसे उन्हींको लक्ष्य करके धर्म देशना देनी आरम्भ की :
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“हे भव्यजनों ! करोड़ों भवोंमें जिनको प्राप्त करना कठिन है, ऐसी नरभव आदि सकल सामग्रियाँ प्राप्तकर भवसागरके लिये नोक के समान जैन-धर्मकी आराधना करनेका सदा प्रयत्न करते रहो । जैसे अक्षरोंके बिना लेख, देवताके बिना मन्दिर और जलके बिना सरोवर नहीं सोहता, वैसे ही धर्मके बिना मनुष्य-भव भी शोभित नहीं होता । हे भव्य प्रणिओ ! विशेष रूपसे एकाग्र चित्त होकर सुनो – इस दुर्लभ मनुष्य जन्मको पाकर धन, ऐष्वर्य, प्रमाद, और मदसे मोहित होकर इसको व्यर्थ मत