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* प्रथम सर्ग *
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न्याय शास्त्र तथा धर्म-शास्त्रमें कुशल, श्रावक-धर्ममें प्रवीण, राजमान्य और महर्द्धिक थे । वह धर्मनिष्ठ थे । राजाकी पुरोहिताई भो करते थे और प्रतिदिन प्रतिक्रमण आदि धर्म क्रियाएँ किया करते थे । उनकी प्राणवल्लभाका नाम अनुद्धरा था, जो पतिव्रता, सदाचारिणी और शीलरूपी अलङ्कारको धारण करनेवाली थी । उनके मरुभूति और कमठ नामके दो पुत्र थे, जो बड़े ही चतुर और पण्डित थे । उनमें मरुभूतिकी प्रकृति बड़ी सरल थी । वह चड़ाही सत्यबादी, धर्मात्मा, सज्जन और गुणवान् था, कमठ बड़ा ही दुष्ट, लम्पट, दुराचारी और कपटी था । एक ही नक्षत्रमें और एक ही माँके उदरसे पैदा हुए मनुष्य भी पाँचों उंगलियोंकी तरह एकसे शील-स्वभाव वाले नहीं होते ।
कमठकी स्त्रीका नाम अरुणा और मरुभूतिकी स्त्रीका नाम वसुन्धरा था । अपनी स्त्रियोंके साथ यह दोनों भाई सभी प्रकारके सुख भोगते हुए अपना जीवन सानन्द व्यतीत कर रहे थे ।
एक दिन पुरोहित विश्वभूतिने अपनी गृहस्थीका भार अपने दोनों पुत्रोंको सौंपकर आप केवल जिनधर्म-रूपी सुधारसका स्वाद लेना आरम्भ कर दिया । तृष्णाको त्याग कर, वैराग्यसे मनको एकाग्र कर, वह सामायिक और पौषध आदि करने लगे । कुछ दिन बाद विविक्ताचार्य नामक गुरुसे अनशन-व्रत ले, एक चितसे पश्च परमेष्ठि मन्त्रका स्मरण करते हुए शरीर छोड़कर वह सौधर्म-देव लोकमें जाकर देवता हो गये। इधर पति वियोगले व्याकुल अनुद्धरा भी कठोर तप द्वारा शरीर त्यागकर विश्वभूति